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३०२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
देशावकाशिक व्रत
देशावकाशिक व्रत में सद्गृहस्थ अपनी वृत्तियों को और भी नियंत्रित/संयत करता है, आवश्यकताओं को कम करता है।
धर्मशास्त्रों के शब्दों में उसका सागर के समान पाप कम होकर बंद के समान रह जाता है और नीतिशास्त्र के शब्दों में उसका स्वयं का जीवन सुखी होता है और साथ ही समाज में भी सुव्यवस्था का प्रसार होता है ।
गांधीजी के शब्दों में यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताएँ स्वयं ही सीमित कर ले तो वर्ग संघर्ष को अवकाश ही न मिले, किसी को भी अभावजनित कष्ट न झेलना पड़े, सबकी जरूरतें पूरी हो जायें और समाज में सर्वत्र समानता व्याप्त हो जाय ।
इसका परिणाम यह होगा कि अनैतिक वातावरण स्वयं समाप्त होकर नैतिक वातावरण को यथेष्ट अवसर प्राप्त होगा।
इस प्रकार व्यक्तिगत दृष्टिकोण से देशावकाशिक व्रत मानव के जीवन में शांति लाता है और सामाजिक दृष्टिकोण से यह ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करता है, जिससे सम्पूर्ण समाज में सुख का वातावरण बनता है, वितरण व्यवस्था सुचारु रूप से चलती है तथा अशुभत्व के स्थान पर शुभत्व का प्रयोग प्रसार पाता है । पौषधोपवास व्रत
एक दिन-रात अथवा २४ घण्टे तक आहार, व्यापार और शरीर श्रृंगार का त्याग करके ब्रह्मचर्यपूर्वक आत्मचिन्तन, धर्मध्यान आदि शुभ परिणति में लीन रहना पौषधोपवास व्रत है।
साधक पौषधोपवास में स्वयं अपनी जीवन शैली का निरीक्षणपरीक्षण करता है । अपने सद्गुणों के विकास के साथ-साथ अपने दोषों का चिन्तन करके उन्हें निकालने का, दूर करने का विचार तो करता है किन्त पराये अथवा किसी दूसरे व्यक्ति के दोषों का चिन्तन बिल्कुल नहीं करता। उसका प्रयास और प्रयत्न स्वयं अपने को सुधारने का होता है ।
स्वयं की कमजोरियों को जानना, उन्हें दूर करने का प्रयास करना, अपने आपका सुधार करना-स्वयं में एक बहुत बड़ा नैतिक आचरण है, अशुभत्व को त्यागकर शुभत्व की ओर गमन है ।
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