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________________ २६८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (१) विषयरूपी विष के प्रति आदर रखना। (२) पूर्वकाल में भोगे गये भोगों-भोग्य पदार्थों का स्मरण करना। (३) वर्तमान काल के भोग्य पदार्थों के प्रति अत्यधिक लोलुपता रखना। (४) भविष्य के भोगों की अत्यधिक लालसा रखना। (५) भोग्य विषय तथा पदार्थ न होने पर भी मन ही मन उनके भोगों का अनुभव करते रहना यानी मानसिक भोग करना। __ यह पांचों अतिचार धर्म से संबंधित तो हैं ही, नीति से इनका सीधा संबंध है । यह पांचों उपभोग-परिभोग की मानसिक अवस्थाओं को प्रगट करते हैं, जो मानसिक अनैतिकताएँ हैं। इनसे व्यक्ति का मन और मस्तिष्क विकारी बनता है। इन मानसिक विचारों का दुष्प्रभाव व्यक्ति के स्वयं के स्वास्थ्य और जीवन पर गहरा पड़ता है । अनर्थदण्ड विरमणव्रत 'अर्थ' का अभिप्राय है, स्वयं के अथवा परिवारीजनों के लिए अनिवार्य प्रयोजनभूत प्रवृत्ति और अनर्थ का अभिप्राय है अनिवार्य प्रवृत्तियों के अतिरिक्त अन्य प्रवृत्तियाँ--हिंसादि रूप कार्य, जिनको न करने से भी जीवन निर्वाह में कोई बाधा नहीं आती। आचार्य उमास्वाति ने कहा है-जिससे उपभोग-परिभोग होता है श्रावक के लिए वह अर्थ है और इनके अतिरिक्त सब अनर्थ प्रवृत्ति है । नीति के दृष्टिकोण से अनर्थ अथवा अशुभ प्रवृत्तियां सर्वथा अनुचित और त्याज्य हैं। व्यक्ति को शुभ का आचरण ही करना चाहिए। धर्मशास्त्रों में इसके चार प्रकार बताये हैं (१) अपध्यानाचरित-अपध्यान का अभिप्राय है-कूविचार । मन में बुरे (Evil) विचार करते रहना । इसमें ऐसी असंभव कल्पनाओं का भी समावेश होता है, जो पूर्ण तो हो नहीं सकती; किन्तु मन को दुश्चिन्तन द्वारा मलिन अवश्य बना देती हैं । उदाहरणार्थ-बैरी का घात करू, राजा १. उपभोग-परिभोगी अस्याऽअगारिणोऽर्थः तद्व्यतिरिक्तोऽनर्थः । -तत्वार्थभाष्य ७/१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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