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________________ २६८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (१७) वृद्धानुगामी-वृद्ध का अभिप्राय यहां उन व्यक्तियों से है जो ज्ञान और आचरण में अधिक परिपक्व हों; जिनका आचरण असंदिग्ध और नीतिपूर्ण हो, उनका अनुगमन करना। (१८) विनीत-विनम्र और विनयपूर्वक आचरण करने वाला। (१९) कृतज्ञ-अपने प्रति किये गये उपकार को विस्मृत न होने वाला। (२०) परहितकारी- परोपकार करने वाला। (२१) लब्धलक्ष्य-जीवन के साध्य का ज्ञाता ।। इसी प्रकार के १७ गुणों का निर्देश पंडित आशाधरजी ने अपने सागार धर्मामत में किया है । १ धम्मरयणस्सोगो अखुद्दो रूववं पगइसोम्मो । लोयप्पियो अक्कूरो, भीरु असठो सुदक्खिन्नो ॥ लज्जालुओ दयालु मज्झत्थो सोम्मदिट्ठी गुणरागी। सक्कह सपक्खजुत्तो, सुदीहदंसी विसेसन्नू ।। बुड्ढाणुगो विणीओ, कयन्नुओ परहिअत्थकारी य । तह चेव लद्धलक्खो, एगवीसगुणो हवइ सड्ढो । -प्रवचनसारोद्धार २३६, गाथा १३५६-१३५८ २ सागार धर्मामृत (अध्याय १) में पंडित आश'धरजी द्वारा वणित १५ गुण यह हैं-(१) न्यायपूर्वक अर्थोपार्जन करे (२) गुणीजनों को मानने वाला (३) सत्य बोलने वाला (४) त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) का इस प्रकार सेवन करे कि इनमें से किसी का विरोध न हो (५) योग्य (धर्मावरण में सहायक, सौम्य स्वभाव वाली) स्त्री (६) उचित स्थान (कलह रहित पास-पड़ोस) (७) ऐसा निवास स्थान जहाँ स्वच्छ वायु और प्रकाश का आवागमन हो (८) लज्जाशील हो (8) उचित आचरण करे (१०) शुद्ध, सात्विक, शाकाहार (११) सज्जनों की संगति (१२) सुबुद्धिशाली (१३) कृतज्ञ (१४) इन्द्रियों को वश में रखने वाला (१५) धर्म का उपदेश सुनने और समझने में रुचि रखने वाला (१६) दयावान (१७) पापों से डरने वाला, पाप कार्यों से जिसका हृदय कांपता हो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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