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________________ २६२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (२) जो अपने सुख का त्याग नहीं करते हुए दूसरों का उपकार करते हैं । (३) जो अपने स्वार्थ (सुख) में मग्न रहते हैं, अपने स्वार्थ को ही सिद्ध करते हैं, चाहे इससे किसी दूसरे को पीड़ा ही क्यों न हो । (४) ऐसे भी मानव होते हैं जो बिना अपने स्वार्थ के, व्यर्थ ही दूसरों को कष्ट देते हैं, उन्हें पीड़ित करते हैं । इनमें से प्रथम कोटि के पुरुष उत्तम कोटि के नैतिक हैं और द्वितीय कोटि के पुरुषों की गणना सामान्य नैतिक पुरुषों में होती है । अधिकांशतः नीतिवान पुरुष इसी सामान्य कोटि के होते हैं । तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के पुरुष तो घोर अनैतिक - नरराक्षस होते हैं । वे तो मानव कहलाने योग्य भी नहीं हैं । जबकि नैतिक पुरुष तो ऐसे होते हैं कि वे उपकार करके भूल जाते हैं और यदि किसी ने उन पर उपकार किया है तो उस उपकार को वे सदैव स्मरण रखते हैं और प्रत्युपकार के लिए तत्पर रहते हैं । . ( ३४-३५) विजय की ओर नैतिक जीवन की ओर अग्रसर मार्गानुसारी व्यक्ति, उपरोक्त तेतीस गुणों को धारण करके अपनी मनोभूमि को इतनी स्वच्छ और निर्मल बना लेता है, अपना आचरण इतना विवेकसंपृक्त बना लेता है, मनोबल को इतना दृढ़ कर लेता है कि वह विजय की ओर अपने दृढ़ और मुस्तैद कदम बढ़ाने में सफल हो जाता है । विजय किस की ? इस जिज्ञासा के समाधान में आचार्य ने कहा हैआन्तरिक छह रिपुओं का त्याग करता हुआ इन्द्रियों पर विजय करे | 2 आत्मा के आन्तरिक छह शत्रु हैं - ( १ ) काम (२) क्रोध (३) लोभ (४) मोह ( ५ ) मद और ( ६ ) मात्सर्य । इन आन्तरिक शत्रुओं की यह विशेता है कि इन्हीं के कारण बाह्य शत्रु बनते हैं । काम के दो अर्थ हैं - (१) इच्छा और ( २ ) कामना अथवा वासना । धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य आदि संग्रह करने की अभिलाषा इच्छा है और वासना काम सेवन की प्रवृत्ति को कहा जाता है । १. अन्तरंगारिषड्वर्ग - परिहार - परायण । वशीकृतेन्द्रियग्राम। Jain Education International For Personal & Private Use Only योगशास्त्र १ / ५६ www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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