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जैन दृष्टि सम्मत-व्यावहारिक नीति के सोपान | २५७
यह दोहा व्यावहारिक नीति के लिए अटल सत्य है। 'घर हानि जग हास' का आचरण सदा ही दुःख और क्लेश उत्पन्न करता है।
नीति का प्रारंभिक बिन्दु है-विचारधारा को सदा उन्नत रखना । जिसके विचार सदा ऊर्ध्वमुखी होते हैं, उसका आचरण भी तदनुरूप बनता है, वह सदा नीति के मार्ग पर आगे बढ़ता है।
इसीलिए आचार्य ने मार्गानुसारी के लिए दीर्घदर्शी होना एक आवश्यकगुण बताया है।
लेकिन यहाँ दीर्घसूत्री और दीर्घदर्शी का अन्तर समझ लेना आवश्यक है । दीर्घसूत्रता आलस्य का पर्याय है। दीर्घसूत्री व्यक्ति महीनोंवर्षों तक सोचता रहता है, ऊहापोह करता रहता है, दृढ़ कदम नहीं उठा पाता और इस कारण जीवन के हर क्षेत्र में विफल हो जाता है।
जबकि दीर्घदर्शी भविष्य में आने वाली परिस्थितियों का समुचित विवेचन विश्लेषण करके आकलन करता है, अपनी स्थिति और सामर्थ्य को तोलता है और उचित समय पर उचित कदम उठाकर सफलता का वरण करता है।
(२७-२८-२९) विशेषज्ञता, कृतज्ञता, लोकप्रियता विशेषज्ञता का अभिप्राय है-हिताहित का विवेक, अच्छाई और बुराई में विभेद करने की क्षमता।
कृतज्ञता का अर्थ है-अपने प्रति किये हुए उपकार को विस्मृत न करना तथा उपकारी के प्रति विनम्र व समय आने पर उचित सहयोग की भावना रखना।
लेकिन कृतज्ञता व एहसान चुकाने के नाम पर नीति विरोधी, समाज व राष्ट्रविरोधी आचरण करना, कृतज्ञता नहीं है।
व्यक्ति को व्यावहारिक जीवन में अनेक कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं, विरोधी परिस्थितियों में भी कुशलता, सूझ-बूझ से काम लेकर उचित उपाय
१. नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थं, न क्लीवा न च मानिनः । न च लोकापवादभीताः, न च शश्वत प्रतीक्षिणः ।
-महाभारत २. Right step at right occasion with full zeal.-Stevension (quot
. ed by A. L. Srivastava : Akbar, The Great Mughal. ३. विशेषज्ञः कृतज्ञो, लोकवल्लभ।।
-योगशास्त्र १/५५
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