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________________ २३४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन यद्यपि इन बाह्य कारणों से इन्कार नहीं किया जा सकता किन्तु चोरी का प्रमुख कारण है - लोभ, लालसा की उत्कट सीमा तक बढ़ा हुआ लोभ, ऐसा लोभ जो सन्तोष को पूर्णतया नष्ट कर चुका होता है । लोभ के कारण ही मनुष्य चोरी करता है । कुशलता और श्रमशीलता से धन कमाना नहीं चाहता सकता, तथा विषयों में अतृप्त और परिग्रह के संग्रह में ऐसा व्यक्ति ही चोरी जैसा बुरा कर्म करता है । " जो अपनी बुद्धिअथवा कमा नहीं आसक्त है ऐसा चोरी का व्यसन सभी प्रकार से बुरा है । नैतिक शास्त्रों में इसे जघन्यतम बुराई ( most evil concept ) कहा गया है । यह व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को ही बरबाद कर देता है । चोरी का प्रभाव समाज, परिवार, राष्ट्र और सम्पूर्ण मानवता पर पड़ता है । सभी का चारित्रिक पतन हो जाता है, मानवता और सभी मानवीय गुण खतरे में पड़ जाते हैं । अतः स्वयं अपने जीवन तथा मानवीयता की रक्षा के लिए चोरी का व्यसन त्याग देना चाहिए । परस्त्रीसेवन पर-स्त्री का अभिप्राय है पराई - दूसरे की अथवा दूसरी स्त्री । परस्त्री का अर्थ समझने के लिए आवश्यक है कि स्व- स्त्री के स्वरूप को समझ लिया जाय । स्व- स्त्री विधिवत् विवाहित स्त्री को कहा जाता है । जिसके साथ पंच-साक्षो या अग्नि साक्षी में पाणिग्रहण संस्कार हुआ है, वह स्व- स्त्री और उसके अतिरिक्त सबकी सब पर - स्त्रियां हैं, चाहे वे कुमारी हों, विधवा हों, अथवा उनका पति जीवित हो । ऐसी किसी भी स्त्री के साथ भोग सम्बन्ध रखना पर - स्त्रीसेवन व्यसन है । यह व्यसन धार्मिक, नैतिक, सामाजिक और स्वास्थ्य सभी दृष्टियों से हानिकारक, अनुचित, निन्दनीय और गर्हित है । किन्तु पश्चिमी भोगवादी संस्कृति और सभ्यता में स्वच्छन्द और १. अतित्य परिग्गहंमि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुटिं । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्त ं ॥ Jain Education International -- उत्तराध्ययन सूत्र ३२२६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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