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जैन नीति का आधार : सम्यग्दर्शन | १६६
जितने शब्द भर दिये जाते हैं, उतने ही रहते हैं, वह स्वयमेव ही नये शब्दों की रचना नहीं कर सकता । उसे कार्य करने के लिए मानवीय निर्देश एवं विद्य ुत ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।
जैन दर्शन ने भी उन द्रव्यों को जिनमें जीवत्व ( जीव के गुण उपयोग, चेतना आदि ) नहीं है, उनको अजीव कहा है । अजीव द्रव्य के प्रमुख भेद दो हैं - ( १ ) रूपी और (२) अरूपी ।
रूपी का अभिप्राय है, जिनमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण- यह चार गुण हों, ऐसा द्रव्य पुद्गल है । इसे अंग्रेजी में Matter कहा जाता है ।
अरूपी द्रव्य वे हैं जिनमें स्पर्श, गंध, रस और वर्ण नहीं हैं । ऐसे द्रव्य ४ हैं - ( १ ) धर्मास्तिकाय, ( २ ) अधर्मास्तिकाय, ( ३ ) आकाशास्तिकाय और, (४) काल ।
अधर्मास्तिकाय जीव- पुद्गल के ठहरने में उदासीन रूप में सहायक होता है, जैसे वृक्ष की छाया, धर्मास्तिकाय मछली के लिए जल के समान उदासीन गति सहायक का कार्य करता है । आकाश सबको अवगाहन अथवा स्थान देता है और काल समय बताता है, वस्तु को नई-पुरानी आदि दर्शाता है, परिवर्तन और परिणमन का निमित्त बनता है ।
जीव और अजीव के अतिरिक्त सात तत्व और हैं । आव कर्मों का जीव में आगमन है, बंध उन कर्मदलिकों का आत्मा के साथ एकाकार हो जाना है । पुण्य आत्मा की शुभ प्रवृत्ति है और पाप अशुभ प्रवृत्ति है । संवर आस्रव का विरोधी अथवा कर्मों के आगमन का रुकना है तथा निर्जग पूर्व में बँधे हुए कर्मों का झड़ जाना, आत्मा से पृथक हो जाना । मोक्ष तत्व का अभिप्राय सर्वथा कर्म मुक्त अवस्था है, इस दशा जीव के साथ किसी भी प्रकार का कर्म नहीं रहता, यह आत्मा की शुद्धविशुद्ध दशा है ।
मोक्ष स्वरूप की प्राप्ति ही जैन नीति का लक्ष्य है ।
नव तत्वों में हेय (त्यागने योग्य), ज्ञ ेय (जानने योग्य) और उपादेय ( आदर ने योग्य ) - यह तीन प्रकार की योजना की गई है । जीव और अजीव - यह दो तत्व जानने योग्य हैं; आस्रव, बंध, पाप यह तीन तत्व
१ उत्तराध्ययन सूत्र २८ / ७-१०
अन्य तत्व
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