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________________ १९८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन नीतिशास्त्र में जीव के कर्तापन और भोक्तापन का अधिक महत्व है। कर्तृत्व शक्ति तथा प्रवृत्ति होने से जीव अपने किये हुए कर्मों तथा आचरणों के लिए उत्तरदायी होता है, उसे नैतिक अथवा अनैतिक की संज्ञा दी जाती है तथा भोक्ता होने से उसे अनैतिक आचरणों का दुष्फल और नैतिक कार्यों का शुभफल मिलता है। दण्डनीति, सामाजिक भर्त्सना आदि की व्यवस्था अशुभ अनैतिक कार्यों एवं प्रवृत्तियों को रोकने के लिए ही की गयी है तथा प्रशंसा, पुरस्कार, सत्कार आदि नैतिक शुभ एवं नैतिक प्रगति को गति प्रदान करते हैं। अजीव तत्व अजीव तत्व को भली भांति समझने के लिए जीव और अजीव में जो भेद हैं, उन्हें जानना उपयोगी होगा। जीव के लक्षण उपरोक्त पंक्तियों में दिये जा चुके हैं । यहाँ हम जीव और अजीव की पारस्परिक विभिन्नताओं की चर्चा करेंगे। जीव और अजीव की विभाजक रेखा-इस संसार में जीव कहीं भी शुद्ध रूप में नहीं पाया जाता, सर्वत्र वह पुद्गल से संबन्धित ही दृष्टिगोचर होता है, क्योंकि उसके साथ शरीर लगा हुआ है, जो पौद्गलिक है-अजीव है। इसलिए भी विभाजन को समझना अति आवश्यक है अन्यथा जीव तत्व और अजीव तत्व के स्वरूप के विषय में भ्रान्ति होने की संभावना है। अजीव १ प्रजनन शक्ति (संतति उत्पादन) २ वृद्धि (स्वयमेव) (Growth) ३ आहार-ग्रहण ४ विसर्जन (नीहार) ५ जागरण, नींद, परिश्रम, विश्राम नहीं ६ आत्मरक्षा हेतु प्रयास नहीं ७ भय त्रास आधुनिक जीव विज्ञान ने जीव के यह लक्षण स्वीकार किये हैं, तथा इन लक्षणों का अभाव जिसमें हो, उसे अजीव संज्ञा दी है। यह तथ्य है कि कोई भी मशीन अपनी जैसी दूसरी मशीन नहीं बना सकती, अपना आकार स्वयं ही नहीं बढ़ा सकती, वह नींद भी नहीं ले सकती, और न ही वह आत्मरक्षा हेतु प्रयत्न भी कर सकती है। विज्ञान द्वारा निर्मित आधुनिकतम मशीन सुपर कम्प्युटा है । उसमें जीव नहीं नहीं नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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