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________________ रही है, किन्तु 'जैन नीतिशास्त्र' पर आज तक कोई ठोस पुस्तक देखने को नहीं मिली । इधर में जो कुछ पुस्तकें 'जैन नीतिशास्त्र' के नाम से निकली हैं उनमें भी वर्णन की वही परम्परागत शैली है और वे ही आचार सम्बन्धी सर्व प्रसिद्ध बातें। पाश्चात्य एवं पौर्वात्य नीतिशास्त्र की शब्दावली में, नीतिशास्त्र की शैली में तथा सम्पूर्ण नीतिशास्त्र के तुलनात्मक दृष्टि कोण से चिन्तन का अभाव खटक रहा है । प्रस्तुत पुस्तक की अपनी यह विशेषता है कि नीतिशास्त्र के सभी प्रत्ययों पर गहराई से विचार किया गया है और जैन नीति की धारणाओं को पद-पद पर समीक्षा के साथ प्रस्तुत किया गया है। ___ इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति भी करेगा और नीतिशास्त्र के अध्येताओं को मनोविज्ञान और नीतिशास्त्र के छात्रों को एक नई पाठ्य सामग्री देगा। ___ श्रद्धय उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी ने अपने गम्भीर अध्ययन ब सर्वतोमुखी चिन्तन के आधार पर लगभग १२ वर्ष के दीर्घकालीन स्वाध्याय, अनुशीलन के पश्चात् प्रस्तुत ग्रंथ का लेखन सम्पन्न किया है। मुनि श्री ने पचासों ग्रन्थों का पारायण किया। अनेक सामयिक पत्र-पत्रिकाएं पढ़ीं और धीरे-धीरे इस विषय पर लिखते रहे। इस दीर्घ काल में वे दक्षिण भारत की पदयात्रा करके उत्तर भारत के हृदय भारत की राजधानी देहली तक पहुंचे तथा पुनः जयपुर से वापस राजस्थान प्रवास करके महाराष्ट्र के पूना, अहमदनगर से इन्दौर तक की एक लम्बी परिक्रमा कर चुके हैं। लगभग दस हजार मील की पदयात्रा के मध्य बावजूद अनेकविध व्यवधानों के भी इस ग्रन्थ के लेखन में जुटे रहे। अनेक बार परिवर्तन/परिवर्धन करते रहे। __ इस प्रकार एक सुदीर्घ चिन्तन से परिपक्व यह पुस्तक अनेक नये रोचक तथ्यों से परिपूर्ण जैन साहित्य में एक नवीन विषय का प्रवर्तन करने वाली सिद्ध होगी। - श्रीचन्द सुराना 'सरस' - डॉ० बृजमोहन जैन ( १८ ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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