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नैतिक निर्णय | १६७
(३) कापोतलेश्या - अशुभ मनोवृत्तियाँ, छल-कपट का मनोभाव । ( ४ ) तेजोलेश्या - शुभ मनोवृत्ति, सुखापेक्षी मनोभाव । (५) पद्मलेश्या - शुभतर मनोभाव - कषायों आदि की उपशांतता । (६) शुक्ललेश्या - शुभतम मनोभाव, मृदु व्यवहार, मन-वचन-कर्म की प्रवृत्तियों में एकता, स्वकर्तव्य परिपालन, किसी को भी दुःखी न करने की प्रवृत्ति |
यह लेश्या सिद्धान्त मनोविज्ञान और नीतिशास्त्र की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है । यह मन की प्रवृत्तियों की तो विवेचना करता ही है, साथ ही मानव की प्रवृत्तियों की नैतिक स्तरीयता का भी सर्वांगपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत करता है ।
कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाला मानव तो प्रायः अनैतिक होता ही है, क्योंकि उसमें क्रोध, लोभ आदि कषायों की तीव्रता होती है, वह छल-कपट भी करता है ।
तेजोलेश्या वाला मानव शुभ प्रवृत्ति वाला भी होता है, उसकी मनोवृत्तियाँ और क्रिया कलाप नैतिक होते हैं । नीतिशास्त्र के अनुसार उसे नैतिक मानव कहा जा सकता है । पद्म और शुक्ललेश्या की स्थिति नैतिक उच्चता के स्तर 1
इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन दर्शन ने लेश्या और संज्ञाओं के रूप में जिन मनोवैज्ञानिक प्रेरक तत्त्वों का वर्णन किया है, उन्हें ही पाश्चात्य मनोविज्ञान शास्त्रियों ने 'मूलप्रवृत्ति' कहा है ।
अब मनोविज्ञान के अनुसार नैतिक विवेचन किस प्रकार किया जाता है, यह जानना आवश्यक है ।
नैतिक विवेचन की प्रकृति नैतिक चेतना मानव की अपनी निजी विशेषता है । वह नैतिक चेतना ही शुभ-अशुभ और उचित-अनुचित का विवेचन कर के निर्णय करती है । इस निर्णय की प्रक्रिया में कई मनोवैज्ञानिक तत्त्व प्रभावशील होते हैं । यह तत्त्व हैं—
( १ ) विभिन्न इच्छाओं की चेतना ( Consciousness of Various
desires)
(२) परस्पर विरोधी इच्छाओं का संघर्ष (Conflict of mutually contradictory desires)
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