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१६० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
भी पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है । इसका कारण यह है कि बौद्धिक माँगें भी अनेक प्रकार की हैं। उन सभी को तृप्त करना असम्भव है ।
उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति नैतिक जीवन व्यतीत करना चाहता है, इस बारे में वह धर्म ग्रन्थों - नीति सम्बन्धी ग्रन्थों का अवलोकन करता, धर्मोपदेशकों तथा नीतिशास्त्रियों में विचारों को सुनता है, पढ़ता है, मनन करता है तो उलझन में पड़ जाता है ।
विभिन्न धर्मग्रन्थ और नीति संबंधी ग्रंथों में तो परस्परं विरोधी बातें तो मिलती ही हैं, स्वयं एक ही धर्मोपदेशक एक स्थान पर एक बात या आचरण को नीति या धर्म कहता है और वही दूसरे स्थान पर पहली बात के सर्वथा विपरीत और विरोधी बात कहता है या कार्य करता है ।
ऐसी स्थिति में व्यक्ति को अनेक बौद्धिक मांगों में से किसी एक माँग को चुनना पड़ता है । यथा - वैदिकी हिंसा (जिसको वेदों में अहिंसा - वैदिक हिंसा हिंसा न भवति" कहा गया है) और अहिंसा में से किसी को चुनना । यह स्वतंत्रता बौद्धिक मांगों में से किसी एक को चुनने की स्वतंता है, जो नैतिक जीवन के लिए अनिवार्य है ।
(६) पूर्ण स्वतन्त्रता – इसका अभिप्राय आचार, विचार और वचन को निर्धारित करके उनमें एकरूपता रखना है । ऐसा व्यक्ति सज्जन या महात्मा होता है । सज्जन का लक्षण ही है
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।
सत्कर्म ही करना ऐसे व्यक्तियों का स्वभाव बन जाता है । नीतिशास्त्र के अनुसार ऐसे व्यक्ति ही पूर्ण स्वतंत्रता के अधिकारी होते हैं । इनकी स्वतन्त्रता उच्चतर स्तर की होती है ।
इन छह प्रकार की स्वतन्त्रता को क्रमशः (१) आत्मप्रियता (Selfpleasure), (२) आत्माभिव्यक्ति (self-assertion), (३) आत्मोपलब्धि (self-realisation) (४) आत्मसंयम या आत्मविजय (self-conquest) (५) आत्म-निर्धारण (self-determination) और (६) आत्म- पूर्णता (self-perfection) कहा जा सकता है ।
इनमें से नीतिशास्त्र के अनुसार आत्मोपलब्धि को ही स्वतन्त्रता कहा जाता है; जिसके अनुसार व्यक्ति अपने कार्यों के लिए भी उत्तरदायी होता है ।
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