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________________ नैतिक मान्यताएं | १५६ किस रंग का कपड़ा पसन्द करे, यह उसकी इच्छा पर निर्भर है। वस्तुतः यह स्वतन्त्रता है, अप्रियता से निवृत्ति । (२) प्ररणाओं की तृप्ति में चनाव-जब दो विभिन्न प्रेरणाएँ व्यक्ति को एक ही समय अपनी-अपनी तृप्ति के लिए प्रेरित करती हैं, तो उनमें से एक को चुनने के लिए व्यक्ति स्वतंत्र होता है। जैसे-किसी महात्मा का प्रवचन सुनने जाय अथवा टी. वी. पर पिक्चर देखे-इन दोनों में से किसी एक को भी चुनने के लिए व्यक्ति स्वतन्त्र है। (३) प्रेरणा और बुद्धि की तृप्ति में चुनाव-यहाँ प्रेरणा और बुद्धि के अन्तर को समझ लेना आवश्यक है। प्रेरणा अधिकतर संवेगों (instincts) द्वारा उत्पन्न होती है और बुद्धि विवेकजनित है। इसी अपेक्षा से बुद्धि को दैवी और प्रेरणा को आसुरी भी कह दिया जाता है। यहाँ बुद्धि का अर्थ सुबुद्धि ही ग्रहण करना चाहिए। जब बुद्धि और प्रेरणा में संघर्ष होता है तो दोनों ही व्यक्ति से अपनी-अपनी तृप्ति की माँग करती हैं, तब व्यक्ति अनिश्चय की स्थिति में आ जाता है, मोह-विमूढ़ हो जाता है। उन दोनों में से किसी भी एक को चुनना व्यक्ति के लिए बहुत कठिन होता है। धर्मशास्त्रों में इसे 'दैवी-आसुरी' संघर्ष कहा गया है। अर्जुन के सामने यही स्थिति आ गई थी जब उसने रणभूमि में अपने शस्त्रास्त्र रख दिये थे। उसके सामने एक ओर गुरुजनों तथा अपने कुल-परिवार का मोह था तथा दूसरी ओर क्षत्रिय धर्म का पालन । श्रीकृष्ण के समझाने और यथार्थ स्थिति पर चिन्तन करने से उसने क्षत्रिय धर्म का पालन किया। . (४) बुद्धिपरक जीवन-बुद्धिपरक जीवन से अभिप्राय है-मानवता के अनुसार जीवन जीना । यद्यपि मानव पाशविक और मानवीय-दोनों में से किसी भी एक प्रवृत्ति को चुन सकता है किन्तु पाशवीय प्रवृत्ति अनैतिक होती है और सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक रूप से नीतिशास्त्र अनैतिकता को कोई स्थान नहीं देता। इसीलिए नीतिशास्त्र बुराई की स्वतंत्रता मानव को नहीं देता। इसके अनुसार मानव अच्छे कार्य करने में स्वतंत्र है। अतः बुद्धिपरक जीवन का अर्थ नीतिशास्त्र के अनुसार सत्कर्म या शुभ कार्य करते हुए जीवन व्यतीत करना है । (५) बौद्धिक मांगों का चुनाव-बुद्धिपरक जीवन जीने की स्वतंत्रता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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