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________________ १२६ / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन यतोऽभ्युदय निःश्रेयस् सिद्धिः स धर्मः । — धर्म मानव के अभ्युदय (worldy prosperity and happiness) तथा निःश्रेयस (spiritual prosperity and bliss) की सिद्धि (प्राप्ति) का हेतु (means of realisation) है। यह सुख मानव को नैतिक (विस्तृत अर्थ में धार्मिक) जीवन जीने पर ही प्राप्त हो सकता है। इसी कारण भारतीय नैतिक चिन्तन के अनुसार पुरुषार्थ चतुष्टय प्रत्यय में धर्म-पुरुषार्थ प्रत्यय को प्रथम और प्रमुख स्थान दिया गया है। धर्म मानव के नैतिक आदर्शों को, अर्थ भौतिक साधनों को, काम शारीरिक, मानसिक, प्राणात्मक (vital) इच्छाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। ___ अर्थ पुरुषार्थ-अर्थ पुरुषार्थ नीतिशास्त्र में धर्म के सहायक के रूप में ही स्वीकार किया गया है, न कि धन-संग्रह के रूप में । धन अथवा भौतिक साधनों का संग्रह तो अनैतिक है। धन तथा साधनों का सदुपयोग नैतिक है। दान आदि समाज में अनेक नैतिक कार्य धन से किये जाते हैं। इसीलिए उक्ति है-धनाद् धर्म। साथ ही मूल्य नियन्त्रण (price control), झूठे (false) माप-तोल (measurements and weights) को रोकना आदि भी भारतीय नीतिचिन्तक अर्थ पुरुषार्थ के नैतिक प्रत्यय से प्रभावी बनाने की अपेक्षा करते हैं । काम पुरुषार्थ-काम पुरुषार्थ इच्छाओं के नियंत्रण, असीमित इच्छाओं को सीमा में बांधने की दृष्टि से नैतिक प्रत्यय के रूप में मान्य है, न कि इच्छाओं को खुला छोड़ने के रूप में, क्योंकि अमर्यादित और अनियन्त्रित इच्छाएँ तो भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, लूट-मार आदि अनेक अनैतिकताओं को जन्म देती हैं। मोक्ष पुरुषार्थ-मोक्ष का अभिप्राय धर्मशास्त्रों में सभी प्रकार से मुक्ति, आत्मिक आनन्द की अवस्था माना गया है, जो निराबाध है, शाश्वत है। किन्तु ऐसी अवस्था इस जीवन के बाद आती है, यानी मोक्ष की प्राप्ति इस देह के छूटने के बाद होती है । लेकिन नैतिक प्रत्यय के रूप में मोक्ष पुरुषार्थ का यह अभिप्राय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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