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नैतिक प्रत्यय | १२५
धर्म और अर्थ को साधन माना है तथा काम और मोक्ष को साध्य । धर्म पुरुषार्थ मोक्ष पुरुषार्थ का साधन है और अर्थ पुरुषार्थ काम पुरुषार्थ का साधन है।
जैन आगम ग्रन्थों के प्रथम व्याख्याकार आचार्य भद्रबाह ने इस सम्बन्ध में बहुत ही समीचीन सन्तुलित विचार दिया है-धर्म, अर्थ और काम-ये तीनों पुरुषार्थ परस्पर विरोधी नहीं हैं । किन्तु कुशल अनुष्ठान में लगने पर तीनों हो एक-दूसरे के पूरक व सहायक होते हैं। अपनी भूमिका के अनुसार विहित अनुष्ठानरूप धर्म, स्वच्छ आशय से प्रयुक्त अर्थ और समाज मर्यादा के अनुसार नियंत्रित/स्वीकृत काम–तीनों परस्पर अविरोधी हैं।
__ आचार्य हेमचन्द्र ने भी मार्गानुसारी के गुणों के सन्दर्भ में कहा हैसद्गृहस्थ धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों वर्गों की परस्पर अबाधक रूप से साधना करे । मधुकर मुनिजी ने धर्म से मर्यादित काम (अर्थ भी) को गृहस्थ साधक के लिए विहित माना है।
धर्म पुरुषार्थ-पुरुषार्थ प्रत्यय की अपेक्षा धर्म का अभिप्राय समाज को आरम्भ करने वाले नियमों अथवा सिद्धान्तों से है।
वैसे धर्म धृ-धारणे धातु से बना है । इसका अर्थ है धारण करना। . धारणात् धर्ममित्याहुः धर्यो धारयति प्रजाः।
___ धर्म की इस परिभाषा में भी प्रजा (समाज) को धारण करने वाला धर्म कहा गया है और यह धर्म नीतिशास्त्र का प्रत्यय है ।
वस्तुतः मनुष्य का प्रयोजन है सुखी जीवन । धर्म का भी यही प्रयोजन है । नैतिक मानव अपने भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के जीवन को सुखी बनाना चाहता है। इस दृष्टि से कणाद मुनि ने धर्म का लक्षण इन शब्दों में दिया है
१ दशवेकालिकनियुक्ति गाथा २६२-६३-६४
-धम्मा अत्यो कामो भिन्ने ते पिंडिया पडिसवत्ता ... २ अन्योन्याऽप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपिसाधनम् ।
-योगशास्त्र १/५२ ३ साधना के सूत्र, तृतीय आवृत्ति, सन् १९८४, पृ० २२८ ४ डा० रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ८२
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