________________
११८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
शारीरिक श्रमोपजीवी । यह क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहलाये ।'
डा० भगवानदास और श्री गेराल्ड हर्ड एवं पंडित बनारसीदास का कथन स्वीकार कर लिया जाय तो वर्ण व्यवस्था मानव स्वभाव से सम्बन्धित होकर विश्वव्यापी हो जायेगी। जबकि व्यवहार में ऐसी स्थिति है नहीं, भारत के अतिरिक्त अन्य किसी भी देश में वर्ण व्यवस्था का सिद्धान्त स्वीकृत ही नहीं हुआ ।
नीतिशास्त्र भी वर्ण-व्यवस्था के प्रत्यय को इस विस्तृत रूप में स्वीकार नहीं करता, अपितु यह स्तर ( status ) के रूप में, ऊँच-नीच की भावना के रूप में स्वीकार करता है । और इसी रूप में यह प्रत्यय भारतीय समाज में व्यापक है तथा भारतीय जनों की नैतिक अवधारणा को प्रभावित किये हुए है ।
इसी प्रकार जाति प्रथा भी भारतीय नैतिकता पर विशेष प्रभाव डाल रही है, यह भी भारतीय नीति का विशिष्ट महत्वपूर्ण प्रत्यय है ।
भारत में जाति का प्रारम्भ भी पेशे के अनुसार हुआ । एक ही पेशे ( occupation) के व्यक्ति एक जाति कहलाने लगे । शनैः-शनैः जाति भी जन्मना मानी जाने लगी, इसमें रूढ़ि तथा कठोरता आ गई । को परिभाषित करते हुए श्री झूले ने कहा है
"When a class is s mewhat strictly hereditary, we may call .it a caste.” -Charles Cowley
( जब एक वर्ग पूर्णरूपेण वंशानुक्रम पर आधारित होता है तो हम उसे जाति कहते हैं ।)
इसी प्रकार भारतीय नीति का एक अन्य प्रमुख प्रत्यय आश्रम व्यवस्था है । यह व्यवस्था वैदिक विचारकों द्वारा निर्धारित की गई है । इसमें मानव की आयु १०० वर्ष मानकर ४ विभागों अथवा आश्रमों में विभाजित की गई है -
(१) ब्रह्मचर्याश्रम ( २५ वर्ष तक की आयु ) - इस काल में ब्रह्मचर्य की साधना करता हुआ बालक शिक्षा प्राप्त करता है तथा स्वयं को भावी जीवन के लिए सक्षम एवं योग्य बनाता है ।
१. चटर्जी, शर्मा, दास : नीतिशास्त्र, पृ० ६०
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org