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________________ तृतीय खण्ड में जैन-नीति का पश्चिमी नैतिक वादों के साथ तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात कर्तव्य - अधिकार और दण्ड एवं अपराध के विभिन्न सिद्धान्तों और अवधारणाओं को स्पष्टतः विशद रूप में विवेचित किया है । अन्तिम चतुर्थ खण्ड में परिशिष्ट के रूप में नीति सूक्ति कोष दिया गया है । प्रस्तुत कृति रचना का उद्देश्य यद्यपि बाजार में नीति सम्बन्धी अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं, लेकिन विषय की सर्वांगपूर्णता का प्रायः सभी में अभाव है । अधिकांश पुस्तकें विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम के अनुसार लिखी गई हैं । स्पष्ट ही उनकी अपनी सीमाएं हैं । पाठ्यक्रम पूरा करना ही उनका लक्ष्य रहा है । To K. C. Sogani Ethical Doctrines in Jaina Ethics और डा० D. N. Bhargava की Jaina Ethics यद्यपि जैन नीति की दृष्टि से अच्छी पुस्तकें कही जा सकती हैं किन्तु इनमें भी जैनाचार का ही वर्णन मुख्य रूप से हुआ है | श्रावक और श्रमण के आचार का नीतिपरक आधार और विवेचन का इनमें भी अभाव है । इसके अतिरिक्त और भी पुस्तकें हैं- जैसे श्री संगमलाल पाण्डेय का नीतिशास्त्र का विवेचन, श्री भीखनलाल आत्रेय का भारतीय नीतिशास्त्र का इतिहास आदि । तथापि एक ऐसी पुस्तक का अभाव खटक रहा था, जिसमें जैन-नीति का सर्वांगपूर्ण तथा तुलनात्मक विवेचन हो । प्रस्तुत पुस्तक में मैंने इस कमी को पूरा करने का प्रयास किया है । यह प्रश्न मेरे समक्ष रहा कि जैन-नीति क्या है ? उसका कोई स्वतन्त्र स्वरूप है भी या नहीं ? अथवा वैदिक परम्परा की नीति को ही जैन मनीषियों ने स्वीकार किया है । इस विषय में मैं गहरा उतरा, ग्रन्थों का - प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित सामग्री का ज्यों-ज्यों आलोड़न किया तो स्पष्ट अनुभव किया कि जैन नीति का एक अलग ही स्पष्ट स्वरूप है, जो भारतीय अन्य नीति - परम्पराओं से कुछ विशिष्ट है । अपने आप में पूर्ण है, सर्वांगपूर्ण है। जैन नीति के इसी स्वरूप को मैंने प्रस्तुत ग्रन्थ में स्पष्ट करने का प्रयास किया है । ( १२ ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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