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________________ ११० | जंन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन करना पत्नी का धर्म है । यहाँ धर्म से कर्तव्य ही सूचित होता है। पति की सेवा पत्नी का व्यवहाराश्रित आचरण है । कर्तव्य का सम्बन्ध मनुष्य से ही है, पशु-जगत में यह शब्द कोई महत्व नहीं रखता । अतः कर्तव्य एक चेतन कर्म है, जिसका दायित्व मनुष्य पर ही है और वही कर्तव्य - अकर्तव्य का विवेक कर सकता है । नैतिक कर्तव्य (moral duty ) वह है जो व्यक्ति शुभ अथवा परमशुभ के विचार को हृदय में रखकर करता है । शुभ में क्योंकि व्यक्ति और समाज दोनों का हित निहित होता है, इसी अपेक्षा से नैतिक कर्तव्य के भी दो पहलू हैं - व्यक्ति के अपने हित से सम्बन्धित कर्तव्य और दूसरा समाज के हित लिए कर्तव्य | कुछ विद्वानों ने नैतिक कर्तव्य का एक भेद नैतिक बाध्यता ( moral obligation) माना है । नैतिक बाध्यता से अभिप्राय उन नैतिक कर्तव्यों से है जो व्यक्ति को बाध्य होकर करने पड़ते हैं । नैतिक बाध्यता सामाजिक, राजनीतिक, कानूनी कई प्रकार की हो सकती है, जैसे- चोरी न करना, हत्या न करना, शांति बनाये रखना आदि ऐसे कर्तव्य हैं, जिनको न करने पर व्यक्ति को दण्डित किया जा सकता है । समाज भी उसे तिरस्कृत कर सकता है । किन्तु विशुद्ध नैतिक कर्तव्य वह हैं, जिन्हें मनुष्य स्वेच्छा से अपने ऊपर आरोपित करता है और उनका पालन करता है । ऐसे कर्तव्य व्यक्ति के स्वयं के व्यक्तित्व को उन्नत बनाते हैं । व्यक्ति इनका पालन अपनी अन्तरात्मा के आदेश से करता है | ऐसे कर्तव्य हैं - सदाचारी जीवन व्यतीत करना, दैनिक जीवन व्यवहार शुद्ध रखना, नियमबद्ध जीवन बिताना, स्वस्थ, स्वच्छ और सात्विकतापूर्ण जीवन व्यतीत करना । इनकी यह विशेषता है कि ऐसे नैतिक कर्तव्यों के पालन न करने पर व्यक्ति को किसी प्रकार का दण्ड नहीं मिलता | स्वयं अपनी इच्छा से पालन किये जाने के कारण यह विशुद्ध नैतिक कर्तव्य कहे जाते हैं । भारतीय संस्कृति में इन सभी विशुद्ध नैतिक कर्तव्यों को एक शब्द 'सदाचार' द्वारा अभिव्यक्त किया गया है । जैन दृष्टि - भगवान महावीर ने जो "उज्जुपन्ने उज्जुदंसी' विशेषण साधक को दिया है उसका अभिप्राय सरलमति, सरलगति और सरलशील सम्पन्नता है और हृदय की यह सरलता ही सदाचार का आधारबिन्दु है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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