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________________ नैतिक प्रत्यय | १०७ अच्छाई-बुराई आदि सभी नैतिक प्रत्ययों को स्वीकार करने का इनका आधार इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ही है, आत्मा तक इनकी पहुंच नहीं है । इस विचारधारा के प्रतिनिधि विद्वान इंग्लैण्ड के श्री ए. जो० एयर हैं । ये तो नैतिक प्रत्ययों (concepts) को प्रत्ययाभास (pseudo concepts) मानते हैं और कहते हैं कि इन प्रत्ययों का विश्लेषण नहीं किया जा सकता; अतः इन प्रत्ययों का नीतिशास्त्र में कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं है। ये तो मात्र भावनाएँ अथवा संवेग हैं जो मनोविज्ञान अथवा समाजविज्ञान के विषय हैं । तथा नीतिशास्त्र मनोविज्ञान अथवा समाजविज्ञान की एक शाखा मात्र है। इस प्रकार ये विचारक नैतिक आचरण की तो बात ही क्या उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को ही नकारते हैं । नीतिशास्त्र के क्षेत्र को इतना सीमित कर देते हैं कि वह अपना मूल्य ही खो बैठता है । किन्तु भारत में यह विचारधारा कभी भी स्वीकार-योग्य नहीं रही। यहाँ तो धर्म और नीति का अभिन्न सम्बन्ध रहा है। साथ ही नीतिशास्त्र का कार्य नैतिक प्रत्ययों के निर्धारण के साथ-साथ उनके आचरण पर भी बल देना रहा है । दूसरे शब्दों में, नीतिविज्ञानी और नैतिक आचरण करने वाले मनुष्य ही नैतिक कहे जाते रहे हैं । दुर्योधन के शब्दों में जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः अनीति में परिगणित किये गये हैं। ज्ञान और आचरण का समन्वय भारतीय संस्कृति का शाश्वत उद्घोष रहा है। यही बात नीतिशास्त्र के ज्ञान एवं आचरण के विषय में भी सत्य है । आचरणहीन ज्ञान यहाँ दम्भ का पर्याय माना गया है । १ We find that ethical philosophy consists simply in saying that ethical concepts are pseudo-concept and theref re unanalysable. The further task of describing the different feelings that the différent ethical terms are used to express and the different reactions that they customarily provoke is a task for the psychologist....It appears, then, that ethics, as a branch of knowledge is nothing more than a department of psychology or sociology. ए० जी० एयर-लैंग्वेज, ट्रथ एण्ड लाजिक, पृ० ११२ उद्धृत-संगमलाल पाण्डेय : नोतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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