SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन हार के लिए धारण करने पड़ते हैं और इनके अनुरूप अपना पारस्परिक व्यवहार निश्चित करना पड़ता है । 1 स्पष्ट है कि सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार नैतिक प्रत्यय भी बन जाते हैं । उदाहरणार्थ, जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर अध्यात्मवादी के शब्दों में होगा - सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति अथवा मोक्ष - अनन्त अव्याबाध सुख की उपलब्धि । जबकि भौतिकवादी शारीरिक सुखों के निराबाध भोग को ही जीवन का सर्वोत्तम या चरम लक्ष्य स्वीकार करेगा । इस प्रकार के उत्तर अन्य प्रश्नों के भी प्राप्त होंगे । यह दृष्टिकोण का अन्तर है, जो देश-काल, तथा सभ्यता और संस्कृति की भिन्नता को स्पष्ट प्रकट करता है । नैतिक प्रत्ययों का विश्लेषण अब तक के विवेचन से यह स्पष्ट है कि नीतिशास्त्र का विषय सिर्फ नैतिक नियमों की बौद्धिक व्याख्या करना मात्र ही नहीं, अपितु उन नियमों के अनुसार जीवन-यापन करना, जीवन एवं व्यवहार की शुद्धि और सदाचार का परिपालन भी नीतिशास्त्र का विषय है । किन्तु कुछ आधुनिक नीतिविज्ञानी कर्त्तव्य - अकर्त्तव्य, श्रेय प्रेय, उचितअनुचित आदि नैतिक प्रत्ययों का बौद्धिक विश्लेषण ही नीतिशास्त्र का विषय स्वीकार करते हैं । दूसरे शब्दों में, न्याय-अन्याय आदि नैतिक प्रत्ययों अर्थ-निश्चय ही ये विद्वान, नीतिशास्त्र का कार्य मानते हैं । अर्थ - निश्चय का इनका आधार हृदयगत भाव ( feeling or emotions ) है | किसी कार्य को देखकर सुखद अनुभूति होने को ये विद्वान अच्छाई (good) मानते हैं और दुखद अनुभूति को बुराई ( evil) | उदाहरणार्थ, किसी अन्धे व्यक्ति की लाठी पकड़कर उसे सही राह पर लगा देने से व्यक्ति के हृदय में जो सुखद अनुभूति ( sensation) होती है, वही अच्छाई है और एक्सीडेण्ट में किसी व्यक्ति के घायल हो जाने पर उसे कराहता देखकर भी उसके प्रति जो लापरवाही; उपेक्षा अथवा निर्दयता के भाव आते हैं, वही बुराई ( evil) है । इसी प्रकार न्याय-अन्याय के विषय में भी इन विद्वानों के विचार की प्रणाली है । 1. Moral concept is a normative idea which is conceived by individual and society and behaviour is determined accordingly. - चटर्जी, शर्मा, दास नीतिशास्त्र, पृ० ७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy