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________________ १०४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन अनौचित्य, श्रेय, प्रेय, सदाचार आदि के नियमों की मीमांसा करने लगे तथा नीतिशास्त्र को मूल्यांकन का विज्ञान ही निर्धारित कर दिया। यद्यपि मूल्यांकन तो, विशेषरूप से अन्य व्यक्तियों के चरित्र सम्बन्धी मूल्यांकन तो, सभी करते हैं, यह सर्वत्र प्रचलित है, किन्तु इसका एक पृथक शास्त्र के रूप में, गहराई से विश्लेषण पश्चिमी मनीषियों की देन है। वे नीतिशास्त्र को मूल्यांकन का विज्ञान मानते हैं । उक्त विवेचन से स्पष्ट है नीतिशास्त्र न्याय और अन्याय का विवेचन करता है, साथ ही न्याय किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है, उन उपायों का भी संकेत करता है । इसी प्रकार कर्तव्य-अकर्तव्य, श्रेय-अश्रेय, सदाचारदुराचार आदि भी इसके विवेच्य विषय हैं। विवेचन के साथ ही यह सदाचरण आदि के उपाय भी बताता है और इन उपायों को परमशुभ की प्राप्ति में आवश्यक मानता है। साथ ही मानव को परमशुभ की प्राप्ति के लिए प्रेरणा देता है। नीतिशास्त्र इन विवेच्य विषयों के साथ-साथ मानव के मूल्यांकन, चरित्र सम्बन्धी मूल्यांकन के लिए ठोस आधार प्रस्तुत करता है । सज्जन, दुर्जन, सदाचारी-दुराचारी, उपयोगी-अनुपयोगी आदि, कोई व्यक्ति किस प्रकार का है, समाज-राष्ट्र-परिवार आदि के लिए उपयोगी है अथवा नहींइन सब तथ्यों का विवेचन भी नीतिशास्त्र का विषय है। नीतिशास्त्र की सबसे बड़ी विशेषता है-वस्तुओं तथा व्यक्तियोंसजीव और निर्जीव का मूल्यांकन । इस मूल्यांकन का आधार है, परमशुभ की प्राप्ति में उपयोगिता। अतः नीतिशास्त्र मानव-जीवन तथा समाज की सुव्यवस्था के लिए एक उपयोगी विज्ञान है और इसी दृष्टि से वह मानव के विभिन्न चारित्रिक गुणों की विवेचना करता है ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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