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१०० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
किन्तु भारत के सभी दार्शनिकों तथा धर्म के व्याख्याताओं ने मानव के समस्त चरित्र - आचार के विभिन्न पहलुओं पर विचार करके सदाचार पालन की विविध मर्यादाओं का विवेचन भी किया है । और यह समस्त विश्लेषण नीतिशास्त्र के अन्तर्गत ही समाहित है ।
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भारत में धर्म पालन - धर्म का व्यावहारिक आचरणीय रूप और सदाचार लगभग समानार्थक माने गये हैं । कहा गया है- - आचार: परमो धर्मः आचार - सदाचार ही परम - प्रमुख धर्म है तथा न धर्मो धार्मिकः विना-धार्मिक व्यक्तियों के अभाव में धर्म नहीं टिक सकता । और धार्मिक वही व्यक्ति हो सकता है, जो सदाचारी हो । अतः सदाचार धर्म और नीति दोनों से ही सम्बद्ध है ।
सदाचार के अन्तर्गत मानव का चरित्र ( character ) व्यवहार ( conduct ) और शील ( virtue ) तीनों ही समाहित होते हैं । इन सबकी व्याख्या, विवेचना और विश्लेषण करना, नीतिशास्त्र का कार्य है ।
स्मृतियों आदि में जो मानव के सदाचार का वर्णन है, वह सब नीतिशास्त्र का ही विषय है ।
जैनधर्म के आचारांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, उपासक दशांग आदि सूत्रों में भी मुख्यतः आचार का निर्देश है । आवश्यकचूर्णि भाष्य, व्यवहारभाष्य में भी सदाचार सम्बन्धी वर्णन है । योगबिन्दु, योगशास्त्र आदि ग्रन्थों में भी श्रावकों के आचार का निर्देश है । यह सब एक दृष्टि से विचार किया जाय तो नीतिशास्त्र का ही विषय है ।
जन साहित्य में वसुनन्दी श्रावकाचार, रत्नकरंड श्रावकाचार आदि गृहस्थ के सदाचार की व्याख्या व निर्धारण करने वाले पचासों ग्रन्थ लिखे गये हैं ।
सदाचार के अन्तर्गत मानव चरित्र क्या है ? चरित्र का उद्देश्य तथा महत्व क्या है ? सच्चरित्र, असच्चरित्र तथा दुश्चरित्र में क्या अन्तर है ? इनको निर्धारित करने वाले मानदण्ड क्या हैं ? समाज के सभी अथवा अधिकांश सदस्य किस प्रकार सच्चरित्री बन सकते हैं ? सच्चरित्र के लिए कौन से कार्य करणीय हैं और कौन-से अकरणीय ? आदि सभी पहलुओं का विवेचन नीतिशास्त्र का कार्य है ।
१. आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरंड श्रावकाचार, श्लोक २६
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