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________________ - प्रकाश से ही अन्धकार नष्ट होता है। राप्रमाण,१३ उपमान-प्रमाण, १४ आगम-प्रमाण, १५ द्रव्य, १६ क्षेत्र १७ काल, १८ भाव, १६ अनादि-अनन्त, २० अनादि-सान्त, २१ सादि-सान्त, २२ सादि-अनन्त, २३ नित्य पक्ष, २४ अनित्य पक्ष, २५ एक पक्ष, २६ अनेक पक्ष, २७ सत्पक्ष, २८ असत्पक्ष, २६ वक्तव्य-पक्ष, ३० अवक्तव्य-पक्ष, ३१ भेदस्वभाव, ३२ अभेद-स्वभाव, ३३ भव्य-स्वभाव, ३४ अभव्य-स्वभाव, ३५ नित्यस्वभाव, ३६ अनित्य-स्वभाव, ३७ परम-स्वभाव ३८ कर्ता, ३६ कर्म, ४० करण ४१ सम्प्रदान, ४२ अपादान, ४३ सम्बन्ध, ४४ अधिकरण, ४५ नैगम नय, ४६ संग्रह नय, ४७ व्यवहार नय, ४८ शब्द नय, ४६ समभिरूढ़ नय, ५० एवं. भूत नय, ५१ स्यादस्ति, ५२ स्यान्नास्ति, ५३ स्यादस्ति-नास्ति, ५४ स्यादवक्तव्य, ५५ स्यादस्ति-प्रवक्तव्य ५६ स्यान्नास्ति-प्रवक्तव्य, ५७ स्यादस्ति-नास्ति युगपदवक्तव्य । ये ५७ नाम कहे। अब इनका विस्तार से वर्णन करते हैं। १. निश्चय से जीव का स्वरूप-अनन्त ज्ञान , अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त वीर्य, अव्यावाध, अलख, अजर, अमर, अविकारी, निरञ्जन, अविनाशी, अचल, अकल, चिदानन्द-स्वरूप, अनन्त-गुण जिसमें हैं उसको निश्चय से जीव कहते हैं। २. व्यवहार से जीव का स्वरूप-सूक्ष्म, २ बादर, ३ त्रस, ४ स्थावर ; उस स्थावर में पृथ्वीकाय, अप्काय, वायुकाय, तेजकाय, वनस्पतिकाय ; त्रस में भी दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, भेद हैं । इस जीव के शास्त्रों में १४ और ५६३ भेद भी बतलाये हैं और भी अनेक रीति से शास्त्रों में इसके भेद कहे हैं। सो वहां से देखो। इस रीति से व्यवहार द्वारा जीव का स्वरूप कहा है। ३. जिस समय जिस गति का आयुकर्म और प्राण का बंध करे उस समय वह द्रव्य-जीव होता है। ४. भाव जीव उसको कहते हैं कि जिस गति का आयु बन्धन किया था, उस गति में आकर जो प्राण वा इन्द्रियों को प्रकट भोगने लगा हो, उसको भाव जीव कहते हैं। ५. सामान्य करके तो चेतना जीव का लक्षण है। उस चेतना के दो भेद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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