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________________ मार्ग को जानिए फिर उस पर चंदिए । [ २७३ जीव के असंख्यात प्रदेशों को कर्मों की वर्गणा ने आच्छादन किया है, को बादल आच्छादित कर लेता है, वैसे ही जीव को कर्मों ने श्राच्छ रखा है । परन्तु जीव और कर्म का मेल नहीं, इस आशय को लेकर सांख्य कहता है कि पुरुष ( आत्मा ) निर्लेप है । प्रश्न – आपने यह बतलाया कि जिस प्रकार मेघ सूर्य को आच्छादित कर देता है, इसी प्रकार कर्म जीव को आच्छादित कर देते हैं । परन्तु शास्त्रों में जीव की कर्मो के साथ क्षीर-नीर (जैसे दूध और जल मिलने से एक रूप दीखते हैं) की तरह एकता कही है । उत्तर - हे देवानुप्रिय ! तुमने शास्त्र का नाम सुन लिया है, परन्तुः शास्त्रकारों के रहस्य को नहीं जानते हो। यदि गुरुगम से शास्त्र - श्रवरण किया होता, तो इस प्रकार का कुतर्क तुम्हारे चित्त में नहीं उत्पन्न होता । दुःखगर्भित वेषधारियों को विसराम्रो, अध्यात्मी गुरु को पाओ, तो फिर ऐसे विकल्प न उठा पाओगे, स्याद्वादमय जैनधर्म के रहस्य को हृदयमें जमाओ। जैसे बादल सूर्य का आच्छादन करता है, वैसे ही कर्म जीवका आच्छादन कर देते हैं, ऐसा श्री पन्नवरणा सूत्र में कहा है, हमने कुछ मनःकल्पित नहीं कहा और तुमने जो क्षीर-नीर का नाम लिया, उस क्षीर-नीर - न्याय को भी आचार्य कहते हैं । उन आचार्यों का अभिप्राय ऐसा है कि जीव और कर्म का संयोग सम्बन्ध होने से तदाकार होकर, वे क्षीर- नीर - न्याय से रहते हैं, क्योंकि दूध और जल संयोगसम्बन्ध से तदाकार स्थूल बुद्धि वालों को दीखते हैं, परन्तु आपस में पृथक्पृथक् हैं, क्योंकि संयोग-सम्बन्ध वाली वस्तु समवाय सम्बन्ध के अनुसार कदापि नहीं हो सकती। देखो, दूध और जल मिलाकर चूल्हे पर गर्म करो तो जब तक जल है, तब तक दूध न जलेगा, केवल जल ही जलेगा, यह अनुभव बुद्धिमानों को प्रत्यक्ष हो रहा है । यदि दोनों एक ही होते तो दोनों को ही जलना चाहिए था । इसलिए उन आचार्यों को क्षीर- नीर-न्याय, जीव-कर्म के सम्बन्ध में कहना तो लोलीभाव से है । जो कुछ मेरी बुद्धि में प्राया वह मैंने पाठक गरण को लिखकर दिखा दिया । इस मेरे कथन में जो वीतराग की आज्ञा से विरुद्ध हो तो मैं मिथ्या दुक्कड़ (दुष्कृत) देता हूं | Jain Education International - For Personal & Private Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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