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________________ tul हे पुरुष ! तेरी उमाशा और गति हो अवनति की पोर नहीं 1 RA में कर्मों की मुख्यता मानी गई हैं, सो किसी अपेक्षा से उसका मी ठीक है, क्योंकि जैन सिद्धांतों में भी. कर्म के वश पड़ा हुआ जीव नाना प्रकार के नाच नाचता है और कर्म का कर्ता कर्म ही है। इसी आशय से मीमांसा कर्म की मुख्यता मानता है। . ... बौद्धमत वाला पदार्थ को क्षणिक मानता है, सो बौद्ध भी इस स्याद्वाद सर्बज्ञ के आशय का अंश लेकर क्षणिकता का अंगीकार करता है, क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग ने सर्व पदार्थ को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-युक्त कहा है; उत्पाद अर्थात् उत्पन्न होना, व्यय-अर्थात् विनाश होना और ध्रौव्य स्थिर रहना कहांता है । सो इस उत्पाद-व्यय की अपेक्षा से बौद्ध ने क्षणिकता को अंगीकार किया है। इस रीति से आस्तिकों का विरोध मिटाया, जैन सिद्धांत से विरुद्ध न लिखाया, स्याद्वाद्व सिद्धांत का रहस्य दिखाया, अपेक्षा से हमने सबको एक मिलाया, १५ भेद से सिद्ध होना सर्वज्ञ ने फरमाया। क्योंकि जैन मत में नय का समझना बहुत आवश्यक है और अपेक्षा का समझना भी बहुत जरूरी है। जब तक अपेक्षा और नय को न जानेगा,तब तक जैन-धर्म को भी न समझे । बिना जैन-धर्म समझे रागद्वेष न मिटावेगा, शान्ति बिना वेष को लजावेगा, दुःख से -वैराग्य लेकर लोगों को लड़ावेगा, आपस में राग-द्वेष करावेगा, लोगों का माल खाकर अपने को पूजावेगा, इसीलिये वह अपना अनन्त संसार बढ़ावेगा। खेद का विषय तो यह है कि स्याद्वादी जैनधर्म में भी सम्प्रदाय तथा गच्छादि मत-भेदों ने अड्डा जमा लिया है और कदाग्रह में जकड़ कर एकांतवाद अपनाकर वीतराग सर्वज्ञ के मत की खिल्ली उड़ा रहे हैं। अब श्री वीतराग सर्वज्ञदेव ने जिस रीति से ध्येय का स्वरूप कहा है, उसके अनुसार ध्येय का स्वरूप बतलाते हैं । उस ध्येय का ज्ञान-सहित विचार · करके जो हेय अर्थात् छोड़ने योग्य है उसको छोड़े और जो उपादेय अर्थात् • ग्रहण करने योग्य हो उसको ग्रहण करे। उस ग्रहण किये हुए को धारणा में लावे, उस धारणा के ध्यान के बाद समाधि होगी। इसलिये अब हमको पदार्थों का कहना आवश्यक हुआ, क्योंकि जब तक पदार्थ का वर्णन न करेंगे, तब तक प्रात्म-रूप ध्येय का बोध कदापि न होगा, पदार्थ के ज्ञान में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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