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________________ मुसाफरी करते समय गजनवी [अपरिचित] का विश्वास मत करो। [२१ कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य कृत योगशास्त्र से संकलित पदस्थ स्थान प्रणव (ॐकार) का ध्यान हृदयकमल में रहे हुए समग्र शब्द ब्रह्म की उत्पत्ति का एक कारण, स्वर तथा व्यंजन सहित पंचपरमेष्ठि पदवाचक तथा मस्तक में रही हुई चन्द्र कला में से झरते हुए अमृत के रस से सराबोर महामंत्र प्रणव का कुम्भक करके चितन करें। ॐकार ध्यानके जुदा-जुदा भेद स्तंभन करने के लिए पीले ओंकार का ध्यान, वशीकरण के लिए अथवा क्षुभित करने के लिये मूंगे की कांति जैसा वर्ण, विद्वषण कर्म के लिए काला तथा कर्मों को नाश करने के लिए चन्द्र की कांति के समान उज्ज्वल ॐकार का ध्यान करें। पंच-परमेष्ठि (नवकार) मंत्र का ध्यान तथा फल तीन जगत को पवित्र करने वाला और महापवित्र पंचपरमेष्ठि नमस्कार मंत्र का योगियों को विशेष प्रकार से चिंतन करना चाहिये । १-हृदय में आठ पंखड़ियों वाले सफेद कमल' की कल्पना करें। उस कमल की कणिका में 'नो अरिहंताणं' की कल्पना करें, फिर “नमो सिद्धाणं'' पूर्व दिशा में, "नमो आयरियाणं' दक्षिण दिशा में, "नमो उवज्झायाणं" पश्चिम दिशा में, "नमो लोए सव्वसाहणं" उत्तर दिशा में, "ऐसो पंच नमुक्कारो'' अग्नि कोण में, "सव्व पावप्पणासणो" नैऋत्यकोण में, "मंगलाणं च सव्वेसि'' वायव्य कोण में, “पढमं हवइ मंगलं ईशान कोण में स्थापन करें। इस प्रकार महामंत्र का ध्यान करें। - मन, वचन, काया की एकग्रतापूर्वक जो १०८ बार इन नमस्कार महामंत्र का जाप करता है उसे आहार करते हुए भी एक उपवास का फल होता है तथा इसी महामंत्र की उत्तम प्रकार से आराधना कर के आत्म लक्ष्मी को प्राप्त कर इस भव में तीनों लोकों के प्राणियों द्वारा पूजित होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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