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ही हे वीर व में वीरों का निर्माण करता चल। भाग कि जिस जगह चाहे उस जगह पर पहुंच जाये । इस विषय का एक इष्टान्त दिखाते हैं
जिस समय स्वामी शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को जीतकर संन्यास दिया। उस समय उसकी स्त्री सरसवाणी आकाश में जाती थी, उस समय शंकराचार्य ने उसको रोककर कहा कि तू मुझ से जो प्रश्न करेगी उसका मैं उत्तर दूंगा। उस समय सरसवाणी ने शंकराचार्य का तिरस्कार करने के लिए नायिका के भेद पूछे । इस प्रश्न को सुनकर शंकराचार्य को उत्तर न आया, तब सरसवाणी से छः महीने के वास्ते उत्तर देने की प्रतिज्ञा कर अन्यत्र गया । तब एक नगर में राजा का मृतक देखकर उसके शरीर में प्रवेश कर गया। यह परकाय" (दूसरे के शरीर),में प्रवेश करने का अर्थ यही है कि वे उस मन वायु की एकता करके श्वास के मार्ग से अपने तेजस शरीर को उस राजा के मृतक शरीर में ले गए। यह हाल' शंकर-दिगविजय में लिखा है, वहां से देखो। हमको तो इतना परिचय देना था कि इस मनोवायु की एकता से जो कोई श्वास को बढ़ाकर जो काम करेगा सो सिद्ध कर लेगा।
दसरा, श्री जैनमत के सिद्धान्तों में भी ऐसा कहा है, कि जो तेतीस सागर
८७-परकाय प्रवेश करने की विधि-हठ योग में । ब्रह्मरंध्र से निकल कर और परकाय में अपान (गुदा) मार्ग से प्रवेश करे। वहां जाकर नाभि कमल का आश्रय लेकर सुषुम्ना नाड़ी में से होकर हृदय कमल में जाना । वहां जाकर अपनी वायु द्वारा उसके प्राण के प्रचार को रोकना । वह वायु वहां तक रोकना कि वह शरीरधारी देह से चेष्टा रहित होकर नीचे गिर जाये । अन्तमुहूर्त में उस देह से विमुक्त होने पर अपनी तरफ से इन्द्रियों की क्रिया प्रगट होने पर योग का जानकार अपने शरीर की तरह उस शरीर से सर्व क्रिया में प्रवृत्ति करे । आधा दिन अथवा एक दिन पर शरीर में क्रीड़ा करके बुद्धिमान पीछे उपर्युक्त विधि से अपने शरीर में वापिस प्रवेश करे। यह परकाय प्रवेश (दूसरे की काया में प्रवेश करना) आत्मा के कल्याण में सर्वथा बाधक है इसलिये मुमुक्षु आत्माओं को इसे न तो महत्व देना चाहिये और नहीं साधन करने की आवश्यकता है।
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