SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ANDRASIMARA गुरुजन जब चर्चा करते हो तो बीच में में बोलें। इसको प्रात:काल सूर्य उदय होने के समव (बादलों में माली मार लगे तब) से प्रारम्भ करे, और तीन घड़ी तक करे-- और मध्याह्न को भी तीन घड़ी तक करे । इसी प्रकार सायंकाल में तीन घड़ी करे । इन तीनों काल में अस्सी-अस्सी बार कुम्भक, रेचक, पूरक करे। तीनों काल के ये दो सौ चालीस प्राणायाम हुए। विचार करके देखिये-मनुष्य सुख में हो या दुःख में, क्रोध में हो या क्षमा में, हंसी में हो या रुदन मैं, खुशी में हो या गमी मैं—एक ही स्थिति मैं बहुत समय तक कोई भी नहीं रह सकता। चाहे कोई शस्त्र लेकर घात करने को ही क्यों न आवे, यदि किसी तरह वह समय टाल दिया जावे तो टल जाता है। अतएव मनुष्य की सफलता-असफलना में हेतु तत्त्वों की देन है। तत्त्व क्या है इस पर योगशास्त्र के वचन हैं १-पृथ्वी, २-जल, ३-अग्नि, ४-वायु, ५-आकाश । ये पांच तत्त्व हैं । इन्हें परम तत्त्व कहते हैं । उपर्युक्त पांच तत्त्वों का एक के बाद दूसरे का आना जाना निरबाध निविच्छिन्न रूप में चलता रहता है। एक निमेष भी इनकी गति में अबरोध नहीं होता। इन पांच तत्त्वों में पृथ्वी और जल तत्त्व शुभ हैं। शेष तीन तत्त्वअग्नि, वायु और आकाश तत्त्व, अशुभ फल दाता हैं। इस स्वरोदय विज्ञान मैं इन तत्त्वों का विस्तार से दिग्दर्शन कराया गया है। • अयोग्य काल में किये हुए विवाह आदि तथा दीक्षा प्रतिष्ठा प्रादि कार्य उत्तर काल में उल्टे अशुभ फल को देने वाले दृष्टिपथ में आते हैं। अयोग्य काल में किया हुआ प्रयाण व्यापार आदि के विपरीत परिणाम देखे जाते. हैं। इन्हें दूर करने के लिये दैवी सामग्री के सिवाय दुसरी कोई भी सामग्री समर्थ नहीं है; मात्र इतना ही नहीं परन्तु परवशता के कारण होने वाला जन्म, व्याधि और मरणादि भी अयोग्य काल में हुए हों वे भी शान्ति पुष्टि आदि दैवी शक्ति से दूर होते हैं। ऐसे अनेक हेतुओं को लेकर प्रत्येक शुभ महुर्त की आवश्यकता है। उसका प्रतिपादन करने वाला अष्टांग निमित्त शास्त्र है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy