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________________ - . . प्राणियों का हित अहिंसा में है। प्राणायाम के काल तथा नियम का वर्णन ८५ समय और पांचतत्त्व समय परिवर्तनशील है। अनन्तकाल से अनवरत घूम रहा है। न इसकी गति को ही कभी रोका जा सकता है यह स्वतः ही चल रहा है। यह तो हुई बाह्य समय की बात । इस प्रकार अभ्यंतर स्तर में पंच तत्त्व के रूप में यही समय हम लोगों को दूसरे सूत्र में घूमा रहा है। यही हमारे नित्य नैमित्तिक प्रादि सभी कार्यों मैं लाभ-हानि, जय-पराजय, शुभ-अशुभ कराने में निश्चित कारण बना हुआ है । इसका प्रायः किसी को बोध नहीं है। गुप्त रूपसे घूमते हुए ये पांच तत्त्व एक के बाद दूसरे क्रमानुसार परिवर्तित होते मालुम होते हैं। जैसे ऋतु के परिवर्तन का बोध हो जाता है, उसी तरह तत्त्व के आगमन की भी जानकारी हो जाती है। प्रमाण के लिये देखिये-हम सब मनुष्य सब दिन एक ही है; परन्तु हमारे अन्तःकरण के भाव इतनी जल्दी-जल्दी क्यों बदलते हैं ? कभी शुभ कभी अशुभ; कभी क्रुर कभी सदय; कभो उदंड कभी विनम्र; कभी शांत तो कभी अशांत; कभी प्रसन्न तो कभी विषण्ण । यह जो बार-बार, शीघ्रशीघ्र मनोभाव का परिवर्तन होता है; यह तत्त्व के प्रभाव का ही परिणाम है । अभिप्राय यह है कि जिस समय जिस तत्त्व का शरीर में उदय होता है उसी तत्त्व के प्रभावानुसार भाव, विचार होता है । - उदाहरण के लिये-मैंने आप से अपने किसी कार्य के लिये प्रार्थना की; आपने उत्तर में अस्वीकार कर दिया। फिर मैंने दूसरी बार प्राप से कहा तो उस समय आपने कहा-"अच्छा कर दूंगा। ऐसी बात व्यवहार में बहुधा देखने में आती है । लोग सलाह देते हैं कि अभी उनकी चित्तवृत्ति ठीक नहीं है। कुछ मत कहो । जब देखो चित्तवृत्ति ठीक है, तब. कहना; तुम्हारा कहना सफल होगा । यह बात व्यवहार में स्वतः स्पष्ट है । तात्पर्य यह है कि शुभ तत्त्व में जो कहा जाता है वह काम हो जाता है । अशुभ तत्त्व के समय कही गई बात निष्फल हो जाती है । तत्त्व का यह सिद्धान्त ध्रुव सत्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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