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________________ वाचालता सत्य का विघात करती है। [१७९ संवेदनमागमः' अर्थात् आप्त के वचन ये प्रकट हुआ पदार्थ का जो सवल अर्थात् ज्ञान उसका नाम आगम है, न कि शास्त्रों का नाम आगम है । इसी रीति से श्री आनन्दघन जी महाराज जैसे श्रद्धावान थे, वैसे ही अध्यात्म-योगीराज भी थे। वैसा तो वर्तमान काल में होना कठिन है इसी रीति से गुरुगम को जानो, जैनमत में किसी तरह का सन्देह मत आनो, श्री आनन्दघन जी महाराज अध्यात्मीयों में उच्च कोटि के थे, अध्यात्म बिना विद्वता की कोई महत्ता नहीं। इसी रीति से मैं (चिदानन्द अपर नाम क' रचन्द) ने भी योग्य जिज्ञासु बिना किसी को शिष्य न बनाया८४ । अब जो वक्तव्य है उसके विषय में कहते हैं। प्रथम कहे हुए पंच तत्त्वों की गति चन्द्र और सूर्य नाड़ी में होती है, इसका ठीक ठीक जानना वही स्वर साधन है। स्वरोत्थान स्वरोत्थान प्रथम भ्रकुटि चक्र से होता है और आगमचक्र से होकर बंकनाल के पास होकर पश्चिम-द्वार से निकलकर शीघ्रता से नाभि में खटका देता है फिर नाभि में उठकर हृदय-कमल पर होकर कण्ठदल के ऊपर होकर जो जीमणा (दाहिना) रन्ध्र है उसमें घुसकर बांयी (डाबी) ओर नासिकाद्वार से निकलता है । इसी प्रकार बांयें रन्ध्र में घुसकर दांयी नासिका से निकलता है । इसी रीति से फिर पीछे को भी जाता है । इस जगह किंचित् परीक्षक पुरुषों के वास्ते परीक्षा अवसर भी है—जो भृकुटि चक्र से नाभि में आता है, सो उसके आने की परीक्षा यह है कि नाभि से खट-खट का शब्द आता है। जैसे घड़ी चक्रों के फिरने से खट-खट करती है उसी प्रकार नाभि में भी होता है। इस खटके के देखने के वास्ते जब तक गुरु-कृपा न हो तब तक उस खटके का देखना कठिन है । जो गुरु खटके के देखने की रीति बतावे; तब वह खटका भी देखे और बीच का भी कुछ लाभ हो । कदाचित् कोई बुद्धिमान ८४-आप भी अपने हृदय में ही योग प्रणाली लिए स्वर्ग में चले गये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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