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________________ (१७८] संतोषी साधक कभी कोई पाप नहीं करते । कुचना स्वामिन् ! मन जो है सो बड़ा दुष्ट है, अर्थात् अति चंचल है, परन्तु इसको आपने वश किया है, सो हे प्रभो ! आगमथी अर्थात् शास्त्र के आधार पर अथवा शास्त्र के श्रद्धान-बल से जानता हूं (विश्वास करता हूं) आगे की तुक में कहते हैं कि हे प्रभो ! मैं तो प्रत्यक्ष तब जान, जब मेरा मन स्थिरता पकड़ ले, अर्थात् समाहित हो जावे, ऐसा भाव लोग निकालते परन्तु इस अर्थ में तो शंका उत्पन्न होती है कि आनन्दघन जी को श्रद्धा न थी, क्योंकि यदि उन्हें श्रद्धा होती तो ऐसा न कहते कि मैं शास्त्र से श्रद्धान करता हूं, परन्तु प्रत्यक्ष में तो तब ही विश्वास कर सकता हूं जब कि मेरा मन समाहित हो जावे (ठहर जावे)। इस कथन से उन्हें प्रश्रद्धान उत्पन्न होता है। अथवा उनका मन स्थिर नहीं था। तो वे योगीराज कैसे? ___ इस शंका को दूर करने के लिये कुछ प्रयत्न करते हैं कि पूज्यपाद श्री आनन्दघन जी महाराज के समान तो श्रद्धान इस समय होना कठिन है । और उनके समान योगीराज होना भी कठिन है। किन्तु प्रानन्दघन जी का अभिप्राय न जानने से ऐसा कहना ठीक नहीं जान पड़ता, क्योंकि देखिये श्री आनन्दघन जी अपनी गाथा में क्या कहते हैं ।'पागमथि' इन चार अक्षरों में श्री आनन्दघन जी महाराज का अभिप्राय दिखाते हैं कि एक एक अक्षर में गुरुगम से सम्पूर्ण नाम निकलता है। जैसे 'भीम' कहने से भीमसेन को ग्रहण करते हैं; वैसे ही (आ) कहने से "पाया" और (ग) कहने से — गया", (म) कहने से मन और (थि) कहने से स्थिर। उसका तात्पर्य यह है कि आने जाने में मन को मिलाना (रोकना) उस मिलाने से मन स्थिर होता है । इसी रीति से हे प्रभो ! आपने अपने मन को स्थिर किया, ऐसा उस पद का अर्थ है, परन्तु जैसा लोग कहते हैं उसी रीति से मैं नहीं मानता । कदाचित् आगम पद करके कोई इस गाथा में शास्त्र का अर्थ लेगा तो जो शास्त्रों में आगम का लक्षण किया है वह व्यर्थ हो जायगा । क्योंकि आगम का लक्षण, प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार में तो "प्राप्तवचनादाविर्भूतमर्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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