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________________ 940] अज्ञानी आमा पाप करके भी उसपर अहंकार करता है। एकाच चित्त होकर उस खटके की प्रतीति करे तो उस बुद्धिमान को खटका तो प्रतीत हो जायगा, परन्तु उसका जो रहस्य है सो गुरु के बिना कदापि न मिलेगा, क्योंकि श्री मानतुंगाचार्य जी 'पंच परमेष्ठि स्तोत्र' में लिखते हैं कि "गुरुकृपां बिना किं पुस्तकभारेण'। - न्यायशास्त्र में भी ऐसा कहते हैं कि "शिवे रुष्टे गुरुत्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन' अर्थात् शिव (इष्ट-देव) के रुष्ट होने पर गुरु रक्षण करने वाला है परन्तु गुरु के रुष्ट होने पर कोई रक्षण करने वाला नहीं है। जैन-धर्म में तो गुरु के बिना कुछ भी नहीं होता, इसलिए गुरु की मुख्यता है । अब ऊपर लिखे दोनों स्वरों में जो पांचों तत्त्वों का प्रकाश है, उसका थोड़ा सा वर्णन करते हैं। १-पृथिवी तत्त्व का स्वरूप पृथिवी तत्त्व का रंग पीला और बारह अंगुल या आठ अंगुल बहता हैअर्थात् सन्मुख नकुवे के (नाक के रन्ध्रो के) ठीक सीध में बाहर मालूम पड़ता है। स्वाद मीठा, आकार चौकोना (चौरस), और ५०. पचास पल अथवा बीस मिनट जिसका जंघा में स्थान है। २-जल तत्त्व का स्वरूप दूसरा जलतत्त्व है, इसका वर्ण सफेद है। सोलह अंगुल अथवा बारह अंगुल नासिकाग्र भाग में बहता है, किन्तु इसकी गति नीची रहती है । स्वाद (रस) कषायेला और वर्तुल-गोल आकार तथा ४० पल अर्थात् सोलह मिनट पांव के स्थल में रहता है। ३-अग्नितत्त्व का स्वरूप अग्नितत्त्व का रंग लाल और चार अंगुल ऊंची इसकी गति जानना चाहिए, स्वाद तीक्ष्ण जैसे मरीच का रस तीक्ष्ण होता है, त्रिकोण आकार, ३० पल अर्थात् १२ मिनट कन्धे में रहता है। ४-वायुतत्त्व का स्वरूप वायुतत्त्व का वर्ण हरा अथवा नीला जानना चाहिए, तथा आठ अंगुल अथवा पांच अंगुल तिरछी गति, स्वाद में खट्टा, आकार में ध्वजा जैसा, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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