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अपरिग्रही होकर कोई भी कार्य करो सफलता अवश्य मिलेगी। [१७ परिश्रम दूर हो जाता है, इस लिंचे परिचम दूर करने के लिये यह जामुन । श्रेयस्कर है।
१२-सिद्धासन दांये पांव की एड़ी को योनि के मध्य लगावे । गुदा और लिंग मध्यभाग का नाम योनि है-सीवन-स्थान को योनि कहते हैं । उस स्थान को एड़ी से दबाये रहे और दाहिने पांव को उठाकर लिंग की जड़ में एड़ी को लगा कर नीचे को दबावे,इसी रीति से बैठकर फिर एड़ी को हृदय से चार अंगुल फरक से रखे,
और नेत्रों को अचल दृष्टि से भृकुटी के मध्यभाग में लगा दे उसका नाम सिद्धासन है । इस आसन का फल तो अन्य मतावलम्बियों के शास्त्रों में बहुत वणित है, और श्री जैनमत में भी गुरुमुख से इसकी महिमा सुनने वाले जिज्ञासु जानते हैं, तथा शास्त्रों में भी वर्णन है । “यथा नाम तथा गुणाः" इस उक्ति से भी जान पड़ता है कि इस आसन में कोई विशेष महत्त्व होना चाहिये ।
१३. पद्मासन बाईं जंघा के ऊपर दायां पांव स्थापन कर बांया पांव दाहिनी जंघा पर स्थापन करके दांये हाथ को पीठ पीछे घुमाकर बांयी जंघा पर स्थित पांव के अंगुठे को पकड़े, और ऐसे ही बांये हाथ को पीठ पीछे ले जाकर दाहिनी जंघा पर स्थित जो बांया पांव उसके अंगुठे को पकड़े, और हृदय के समीप ठोड़ी चार अंगुल के अन्तर में रखे, नेत्रों से नासिका की डण्डी अर्थात् अग्रभाग (नोक) को देखे । ‘अब प्रकारान्तर से भी पद्मासन को दिखाते हैं—बांया पांव को आगे दाहिनी जंघा के ऊपर और दाहिने पांव को बांयी जंघा पर रखे, और हाथों को उन दोनों एड़ियों के ऊपर पहले बांये हाथ को रखे, उसके ऊपर दाहिने हाथ को रखे, अर्थात् जैसे जिन-मन्दिर में भगवान् वीतराग जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा स्थापित की जाती है, इसका नाम पर्यकासन भी है।
इन आसनों की विधि श्री हेमचन्द्राचार्य कृत योगशास्त्र में देखो, इस जगह तो संक्षेप से नाम तथा गुण वर्णन करते हैं । जैसे पंकज कीचड़ से
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