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________________ १७६] रोगी की सेवा के लिए सदा तत्पर रहो । उत्पन्न हुआ और जल से वृद्धि पाकर दोनों को छोड़कर पृथक हो जाता है । इसी रीति से जो मनुष्य इस पद्मासन को साधनेवाला है वह संसार रूप कीचड़ से उत्पन्न होकर और भोगरूप जल से वृद्धि पाकर इन दोनों को छोड़कर इस योगरूप अभ्यास में पृथक् स्थित हो जाता है । इसीलिये इसका नाम कमल पंकज भी है । 1 इस प्रकार संक्षेप में आसनों का वर्णन किया है, जो पुरुष पहले इन आसनों का अभ्यास दृढ़ करेगा, वह ही पुरुष योगाभ्यास के परिश्रम को उठावे, गुरु के बिना योगाभ्यास का रास्ता कदापि न पावेगा, पुस्तक बांचने मात्र से भी हाथ न ग्रावेगा, इसीलिए हमारा कहना है जो कोई योग की सिद्धि करना चाहे वह प्रथम स्वरोदय अर्थात् स्वर का अभ्यास योगी गुरु से ग्रवश्यमेव करे । क्योंकि जब तक पूरा-पूरा उसका स्वर के तत्त्वों का ज्ञान न होगा तब तक योग की सिद्धि कदापि न होगी । स्वर के ज्ञान बिना जो मनुष्य योगाभ्यास अर्थात् प्राणायाम, मुद्रा, कुम्भकादि का परिश्रम करते हैं, उनका परिश्रम व्यर्थ जाता है, क्योंकि योगाभ्यास की प्रथम भूमिका स्वर - अभ्यास है । वर्त्तमान काल में बहुत लोग प्राणायामादि अथवा षट्कर्मादि के विषय में परिश्रम उठाते हैं, परन्तु स्वर - अभ्यास के बिना लाचार होकर थक जाते हैं, और समाधि के भेद को नहीं पाते । इसलिए जो योग की इच्छा करने वाला जिज्ञासु है उसको मुनासिब है कि सद्गुरु के पास से विनयपूर्वक शुश्रूषा करके कपट रहित हो गुरु की चरण- सेवा करे और इस स्वर - साधन की कुंजी सीखे, जिससे सर्व कार्य सिद्ध हों । मकान बनाने वाला यदि पहले नींव को मजबूत करेगा, तो मकान चाहे जितना ऊपर ले जावे उसको कभी भी खतरे का मुंह न देखना पड़ेगा, और न ही किसी प्रकार हानि की सम्भावना होगी । स्वरोदय-स्वरूप पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश यह पांच तत्त्व हैं, और इन पांचों तत्त्वों को ही सभी स्वरोदय वाले कहते हैं । जैनों में भी 1 गुरुकुल-वास विना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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