SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ घर पाये का आदर करें, भाईयों कुटुम्बियों से मेल रखें, सड़ें मत। [१६० नन्द जी महाराज ने हठयोग का प्रतिपादन कर जैन दृष्टि से आत्म कल्याण में उसका क्या और कैसे उपयोग है, इसका विस्तार से विवेचन किया है और इसमें जैन दर्शन की शैली से कितना अंश उपयोगी है इस बात का बड़ी उत्तम रीति से विश्लेषण भी किया है । यहां तक कि यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का विवेचन ऐसी हृदयंगम पद्धति से किया है कि साधारण बुद्धि वाला मनुष्य भी इससे लाभ उठा सकता है । योग के कई ऐसे खास रहस्यों को जिसका स्पष्टीकरण पात्र की योग्यता-अयोग्यता पर निर्भर है उन्हें छोड़कर बाकी सब बातें जिनमें कई महत्वपूर्ण विषय भी शामिल हैं और जिनका सम्बन्ध योग से है इस ग्रंथ में खोलकर रख दिये हैं । इस ग्रन्य के पूर्वार्ध में सविकल्प ध्येय का प्रतिपादन : करने केलिए तीर्थंकर मूर्ति की आवश्यकता बतलाई है और उत्तरार्ध में हठ- , योग तथा राजयोग का सांगोपांग वर्णन किया है। साथ ही इसमें बतलाई गई क्रियाएं आदि जैन दृष्टि से किस प्रकार करनी चाहिये इसका भी सुन्दर खुलासा किया है। ये दोनों कृतियां योगीराज चिदानन्द जी महाराज की सम्यग्दृष्टि महायोगी किसी जैन गुरु के सानिध्य में रह कर योगाभ्यास द्वारा प्राप्त स्वानुभव की मुंह बोलती कृतियां हैं । (इसका पूर्वार्ध भाग यहां नहीं दिया) भिन्न-भिन्न आचार्यों ने भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से योग की अनेक तरह की शैलियों तथा भेदों-प्रभेदों से प्रतिपादन किया हैं। परन्तु हम यहां हठयोग पद्धति का विवेचन कररहे हैं । इसका हेतु हम लिख चुके हैं । इस विषय को विशेष उपयोगी बनाने के लिये अनेक प्रकार की टिप्पणियां (Footnotes) भी इस ग्रन्थ में लिख दिये हैं । .. हठयोग का सिद्धान्त-हठ योग का सिद्धान्त यह है कि स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर एक ही भाव में गुंफित हैं, और एक का प्रभाव दूसरे पर पूरा बना रहता है । स्थूल शरीर को अपने अधीन कर सूक्ष्म शरीर को अधीन करते हुए योग की प्राप्ति करने को हठयोग कहते हैं। योग निष्णात आचार्यों ने हठयोग को सात अंगो में विभक्त किया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy