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________________ Cheचलते फिरते खावें नहीं, बात का हंसें नहीं, हंसी ठट्ठा करें नहीं। - त्रिपिटिक प्रादि और वैदिक धर्म के उपनिषदादि ग्रन्थों के पर्याप्त उद्धरण लिखे जा सकते हैं। - योग का शब्दार्थ शब्द शास्त्र के अनुसार "युज" धातु से घन प्रत्यय के द्वारा योग शब्द निषपन्न होता है । युज नाम के दो धातु हैं । एक समाध्यर्थक, दूसरा संयोगार्थक है । जैन संकेतानुसार तो शुक्लध्यान के पाद चतुष्टय में ही समाधि का तिरोधान होता है, अतः समाधि यह ध्यान की अवस्था विशेष ही है । सारांश यह है कि समाध्यर्थक युज धातु से निष्पन्न योगार्थ में समाधि और ध्यान ये दोनों ही गर्भित हो जाते हैं। अब रहा संयोगार्थ योग शब्द, सो उसमें योग के वे समस्त साधन निर्दिष्ट हैं, जिनकी साधक को अपने अन्दर ध्यान अथवा समाधि की योग्यता प्राप्त करने के लिये आवश्यकता होती है। प्रस्तुत अष्टांग निमित्त के आठ अंगों का संकलन करना ही हमारा ध्येय है अतः उसमें एक अंग 'स्वर' विद्या भी है । स्वरके दो भेद हैं १-प्राणियों की ध्वनियों आदि से निकलने वाले शब्दादि तथा २-नासिका द्वारा निकलने वाला श्वासोश्वास, पहले भेद का विवेचन हम अपनी "शकुन-विज्ञान" नामक पुस्तक में दे चुके हैं । प्रस्तुत पुस्तक में दूसरे प्रकार के स्वर सम्बन्धी विवेचन है, जो कि नासिका से श्वासोश्वास द्वारा निकलता है । यह स्वर प्राणायाम द्वारा साधा जाता है और इसकी साधना का विधान पातंजल योग शास्त्र में विस्तार पूर्वक किया है। इस योग को हठयोग के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इस हठयोग की साधना करने वाले वर्तमानकाल में जैन अध्यात्म योगी श्री चिदानन्द जी महाराज हो गये हैं। - अत: अष्टांग निमित्तके एक अंग "स्वर-विद्य" की पूर्ति-केलिये इन्हीं जैन महानयोगी चिदानन्द जी महाराज कृत "स्वरोदय सार" (पद्य-बद्ध) का. विस्तृत विवेचन तैयार कर पाठकों के करकमलों में दे रहे हैं तथा इस हठयोग के पाठ अंगों में से जैन धर्मकी अध्यात्म साधन पद्धतिमें कैसे कहां तक उपयोगी है इसके लिये इन्हीं के द्वारा रचित पुस्तक "अध्यात्म अनुभव योग प्रकाश" का उपयोगी भाग परिशिष्ट रूप में दे दिया है। इसमें श्री चिदा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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