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________________ संसार में सभी मानव भिन्न-भिन्न विचार वाले हैं अर्थ - भ्रमर गुफा में जाकर वायु को अन्दर खेंच कर पूरक करने के बाद दसवें स्थान में दीप शिखा के समान ज्योति के दर्शन योगी को होते हैं - ४१८ मारग में जातां थकां जो जो अचरिज होय । , शांत दशा में वर्ततां, मुख से कही न जोय ॥ ४१६ ॥ से लगा हुआ मूलाधार चक्र है जहां कुंडलिनी शक्ति निवास करती है और ऊपर के सिरे से सटा हुआ सहस्रार चक्र है । प्राण शक्ति सदा इड़ा और पिंगला नाड़ियों में से होकर प्रवाहित होती रहती है। योगी यदि किसी साधन विशेष से प्राण को सुषुम्ना को नाड़ी नीचे के द्वार में से निकाल ले जाये जो मंदा हुआ है तो उसकी कुंडलिनी शक्ति जो सदा सोयी रहती है जागृत होकर धीरे-धीरे किन्तु दृढ़ता के साथ जीवन के ध्येय की ओर अग्रसर होती है और योगी सहस्रार में जाकर अग्निशिखा के समान ज्योति के दर्शन करता है । इस स्थिति में साधक को बहुत से विचित्र अध्यात्मिक अनुभव होते हैं । इस परम ध्येय को प्राप्त करने के लिए योगी प्राणायाम का अभ्यास करता है जिसका प्रारम्भिक स्वरूप पूरक अर्थात् श्वास को भीतर ले जाना, कुंभक अर्थात् श्वास को रोकना और रेचक अर्थात् श्वास को बाहर निकालना है । क्रमश: श्वास नाड़ी और विचार के प्रवाह को संयत कर अन्त में सूक्ष्म प्राण को अधीन करने में समर्थ होता है और इस वश में किये हुए प्रारण की सहायता से वह जगत के माया रूप भ्रम जाल को छिन्न-भिन्न कर देता है । परन्तु प्रारणायाम के इस विशिष्ट साधन को प्रारम्भ करने के पूर्व साधक के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि वह योग के चार मुख्य अंगों की पूर्ति कर ले । यम तथा नियम का पालन किसी योगी गुरु के तत्त्वावधान में रहना तथा आसन की दृढ़ता। इन प्रारम्भिक नियमों का पालन न होने पर साधक को भयंकर हानि उठानी पड़ती है, जो हृदोग, श्वास और इसी प्रकार के अन्य दुष्ट रोगों के रूप में प्रकट हो सकती है । प्राणायाम का विधिपूर्वक अभ्यास करने से तो कुंडिलनी शक्ति जागृत ही हैं किन्तु प्राणायाम के अतिरिक्त बहुत से अन्य उपाय भी हैं जो मनुष्य की सुप्त शक्ति को जगाने में निसर्गत: समर्थ है । दार्शनिकों की सूक्ष्म संकल्प शक्ति से तथा गुणस्थान क्रमारोह से उत्तम प्रकार से आत्मा का कल्याण होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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