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________________ मुमुक्षुको जैसे बने वैसे मनकी विचिकित्सा से पार होना चाहिए। [१४४ उतने समय में शुभ ध्यान में लीन मनुष्य छः श्वासोश्वास, चुप बैठे हुए देसी श्वासोश्वास, बोलते हुए बारह श्वासोश्वास, सोते हुए सोलह श्वासोश्वास, चलते समय बाईस श्वासोश्वास तथा नारी को भोगते हुए छत्तीस श्वासोश्वास लेता है-४१२-४१३ थोड़ी बेला मांहि जस, बहत अधिक सुर श्वास । आयु छीजे बल' घटे, रोग होय तन' तास ॥ ४१४ ॥ अर्थ-थोड़े समय में जिसके स्वर में अधिक श्वासोश्वास बहते हों उसकी आयु उतनी ही जल्दी क्षीण होती है तथा उतना ही बल घटता है-४१४ अधिका नांहि बोलीये, नहीं रहिये पड़ सोय। अति शीघ्र नांहि चालिये, जो विवेक मन होय ॥ ४१५ ॥ अर्थ-यदि तुम्हारे मन में विवेक है तो अधिक नहीं बोलना चाहिये, अधिक समय तक सोते भी नहीं रहना चाहिये तथा बहुत तेजी से चलना भी नहीं चाहिये-४१५ जान गति मन पवन की, करे स्वास थिर रूप । सो ही प्राणायाम को, पावे भेद अनूप ॥ ४१६ ॥ अर्थ - मन में पवन की गति को जानकर जो मनुष्य श्वास को स्थिर करता है वही व्यक्ति प्राणायाम के अनुपम भेद को पा सकता है-४१६ . मेरु रुचक प्रदेश थी, सूरत डोर कुं पोय । . कमल बन्द छोड़या थकां, अजपा स्मरण होय ॥ ४१७ । अर्थ-मेरु रूचक प्रदेश से सूरत डोर को पिरोकर कमल बन्ध को छोड़ने से अजपाजाप होता है-४१७ भमर गुफा में जायके, करे अनिल कुं पान । - पिछे हुताशन तेहने, 'मिले दसम अस्थान ॥ ४१८॥ ७३-इस शरीर में शिरात्रों के जाल रूप तार लगे हुए हैं। इन शिराओं अथवा नाड़ियों में इडा और पिंगला ये दो नाड़ियां मुख्य हैं। ये मेरुदण्ड के उभय पार्श्व में हैं। इनके अतिरिक्त एक भीतर से पोली नली और है जो सुषुम्ना कहलाती है और मेरुदण्ड के भीतर होकर गई है। इस नली के नीचे के सिरे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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