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________________ १४८] २०७४८४०००० श्वासोश्वास लेता है—४०८ वर्त्तमान इह काल में, उत्कृष्टी स्थिति जोय !. इक शत सोलस वर्ष नी, अधिक न जीवे कोय ||४०६ ॥ अर्थ — वर्त्तमान इस काल में मनुष्य की उत्कृष्ट आयु ११६ वर्ष की है इससे अधिक कोई नहीं जीवित रहता - ४०४ से ४०६ सोपक्रम आयु कह्यो, पंचम काल मंभार । मात्महित का अवसर मुश्किल से ही मिलता है। सोपक्रम आयु विषय, घात अनेक विचार ॥ ४१० ॥ अर्थ – तथापि इस पंचम काल में सोपक्रम आयु कही है । अनेक प्रकार के घातों में से किसी भी घात के होने से इस आयु का शीघ्र क्षय होना सम्भव है - ४१० मन्द स्वास सुर में चलत, अल्प उमर होय खीन । अधिक स्वास चालत अधिक, हीन होत परवीन ।। ४११ ॥ अर्थ-स्वर में धीरे-धीरे श्वास चलने से अल्प ( कम ) आयु क्षय होती है अर्थात् दीर्घ श्वासोश्वास से आयु लम्बी होती है, तथा अधिक शीघ्रता से स्वर चलने से प्रायु जल्दी क्षीण होती है -४११ चार समाधि लीन नर, षट शुभ्र ध्यान मंकार । तुष्णी भाव बैठा ज्युं दस, बोलत द्वादश धार ॥ ४१२ ॥ चालत सोलस सोवतां, चलत स्वास बावीस | नारी भोगत जानजो, घटत स्वास छतीस ।। ४१३ ।। अर्थ – समाधि में लीन मनुष्य जितने समय में चार श्वासोश्वास लेता है 4 Jain Education International ७२- शास्त्रों में आयु दो प्रकार की कही है । ( १ ) अपवर्तनीय तथा (२) अनपर्वतनीय | अनपर्वतनीय आयु उसे कहते हैं जो बाहर के किसी भी आघात के कारण मृत्यु सम्भव न हो । अपनी आयु को पूरे समय भोगकर ही इस आयुवाले प्राणी की मृत्यु होती है । तथा दूसरी आयु अपवर्तनीय है । यह आयु विष के प्रयोग से अथवा अन्य शस्त्रास्त्र आदि के आघात लगने से आयु कर्म एकदम क्षय होकर मृत्यु हो जाती है । इसी आयु का दूसरा नाम सोपक्रम श्रायु है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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