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आत्मा की आलोचना सबसे बड़ा संयम है ।
अर्थ - शांत ४ दशा में रह कर समाधि मार्ग प्राप्त करने तक सिद्धियां प्राप्त होकर आश्चर्य होते हैं उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । वे तो अनुभवगम्य ही हैं - ४१६
वधे भावना शांत में, तन मन वचन प्रतीत ॥ तिम तिम सुख सायर तरणी, उठे लहर सुन मीत ॥
४२० ॥
अर्थ - हे मित्र जैसे-जैसे उपशम (शांत) भावना बढ़ती जाती हैं तथा मन, वचन और काया के योग का निरोध होता जाता है । वैसे-वैसे आत्मा अनन्त सुख रूप समुद्र की लहरों में गोते खाने लगता है । अन्त में जीव योगातीत " ७४ – समाधि मार्ग में अनेकों विघ्न भी हैं । इसमें सबसे बड़ा विघ्न सिद्धियों की प्राप्ति है, जिनका लुभावना और चित्ताकर्षक रूप साधक को चौंधिया देता है सच्चे साधक को चाहिये कि वह इन सिद्धियों के जाल में न फंस जावे और अपने आध्यात्मिक जीवन की नौका को निर्वाण के सुखद एवं निरापद तीर पर ही ले जाकर विश्राम ले ।
७५ – केवल उन ज्ञानी योगियों को जिन्हें जीवन मुक्त कहते हैं मोक्ष स्थिति प्राप्त करने के पूर्व मन, वाणी और शरीर को समस्त क्रियाओं का निरोध (संक्षय) करना पड़ता है यथातत्रानिवृत्तिशब्दान्तं चतुर्थं भवति समुच्छिन्ना क्रिया यत्र सूक्ष्म योगात्मकापि च । समुच्छिन्न क्रियं प्रोक्तं तद् द्वारं मुक्तिवेश्मनः ।। १०६ ।।
समुच्छिन्न क्रियात्मकम् ।
ध्यानमयागिपरमेष्ठिनः ।। १०५ ।।
गुणस्थान क्रमारोह
सभी बाह्य पदार्थों का त्याग अर्थात् सर्वं सन्यास करना पड़ता है । मोक्ष प्राप्त करने में जब पांच ह्रस्व अक्षर ( अ, इ, उ, ऋ, लृ) उच्चारण मात्र समय शेष रहता है उस समय का जो शुक्लध्यान है वही सच्चा मोक्ष साधन अर्थात् योग है । इस अवस्था में स्थित योगी ही सच्चा योगी है । उसके संकल्प विकल्प विलीन हो जाते हैं । उसके विचारों का रज, तम या सत्व गुण से भी स्पर्श नहीं होता । अन्त में वह योगातीत होकर मोक्ष प्राप्त करता है ।
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