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________________ ज्ञानी को सुख दुःख से क्या प्रयोजन ? अर्थ-यदि चन्द्र स्वर चले तो शरीर में अधिक सुख की प्राप्ति होती है । और यदि चन्द्र स्वर तथा सूर्य स्वर दोनों ही न चलें तो समझ लेना चाहिए कि मृत्यु का समय समीप आ गया है-३६८ . एक पक्ष विपरीत स्वर, चलत रोग तन थाय । दोऊ पक्ष सज्जन अरि, तीजे मरण कहाय ।। ३६६ ॥ विषयों को ग्रहण करने में असमर्थ हो जाय तो वह व्यक्ति अवश्य मरे। ५ ।। मस्तक होय प्रस्वेद जसु, मुख से बहे जु वायु। . नाडी की निर्वाह नहीं, नष्ट होय तसु आयु ॥६॥ ___ अर्थ-जिसके मस्तक पर पसीना हो तथा मुख से श्वास ले, नाड़ी अपनी गति छोड़ गई हो तो समझ लेना चाहिये कि उसकी आयु समाप्त होने वाली है। ६ श्यामा होय जिह्वा संकुचे, मुख आरक्त कछु न रुचे । ऐसे जाके लक्षण होय, निश्चय सु यम ग्रहि है सोय ॥७॥ अर्थ-जिसकी जीभ काली हो कर सिकुड़ गई हो और मुंह लाल हो गया हो तथा कोई वस्तु रुचिकर न हो । इस प्रकार के लक्षण वाले की अवश्य मृत्यु होती है ॥७॥ नाभि कुण्डली बीच हो पीड़, वीर्य बन्धु की हो बहु भीड़। अरुचि आहार हृदय में रहे, वर्ष मांहि सो नर मृत्यु लहे ॥८॥ __अर्थ-नाभि में पीड़ा हो, वीर्य का अभाव हो जाय, खाने पीने की मन में रुचि न रहे तो उस व्यक्ति की एक वर्ष में मृत्यु हो ।८ मूत्रधार थमे नहीं, गिरे महीतल' बूंद । सो रोगी त्रय मास में, परि हैं यम के फंद ।। वर्णहीन होय तासु तन, कामहीन होय गात। स्वादहीन रसना हुए, तीन मास में घात ।।६।। अर्थ-पैशाब रुके नहीं, अपने आप उसकी बूंदें टपकती रहें। ऐसा रोगी तीन मास में मर जायगा। जिसका शरीर कांतिहीन हो जाय, शरीर में काम करने की शक्ति न रहे, जीभ स्वाद का अनुभव करने में असमर्थ हो जाय तो उसकी मृत्यु तीन मास में हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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