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________________ मनुष्य जन्म निश्चय ही बड़ा दुर्लभ है। दिवसपति स्वर मांहि जो, युद्ध करन कुं जाय । विजय लहे संग्राम में, शत्रु सेन पलाय ।।२६४॥ अपना सुर दक्षिण चले, शत्रु का फुनि तेह । जीत लहे संग्राम में, प्रथम चढ़े नर जेह ॥२६५॥ शशि चलत कोऊ भूपति, मत.जावो रण मांहि । खेत जीत अरियण लहे, या में संशय नांहि ॥२६६॥ सुखमन सुर संग्राम में, होय शीश पर वार । निकस युद्ध में प्राण जो, कौन बचावन-हार ॥२६७॥ दूर देश संग्राम में, जातां शशि परधान । निकट युद्ध में जानजो, जयकारी स्वर भान ॥२६८॥ - अर्थ-१. हे मित्र ! चन्द्र स्वर चलते हुए युद्ध करने के लिए कदापि नहीं जाना चाहिए। यदि चन्द्र स्वर चलते समय युद्ध करने को जाओगे तो शत्रु की जीत होगी-२६३ २. यदि कोई सूर्य स्वर चलते समय लड़ाई करने को जाएगा तो उसकी अवश्य जीत होगी। और शत्रु की सेना मैदान छोड़कर भाग जाएगी-२६४ . ३. यदि अपना और शत्रु दोनों के दक्षिण (सूर्य) स्वर चलते हों तो जो नर पहले चढ़ाई करे उसकी जीत हो-२६५ ४. चन्द्र स्वर में युद्ध करने को कभी नहीं जाना चाहिए । जो व्यक्ति जाएगा वह अवश्य हारेगा और शत्रु की जीत होगी। यह निःसन्देह है-२६६ ।। ५. सुखमन स्वर में गमन करने वाले के सिर का छेदन होगा जिससे वह लडाई में मारा जाएगा । उसे कोई भी नहीं बचा सकता-२६७ ६. बहुत दूर देश में संग्राम के लिए चन्द्र स्वर में तथा निकट देश में सूर्य स्वर में प्रस्थान करना चाहिए। ऐसा करने से अपनी विजय होगी-२६८। अर्थ-युद्ध के प्रश्न में अग्नि तत्त्व में तीव्र संग्राम, वायु तत्त्व में भंग होना, आकाश तत्त्व में सेना का विनाश अथवा मृत्यु कहे-५६ पृथ्वी तत्व में संग्राम विजय, जल तत्त्व में वांछित से भी अधिक जय, अथवा सन्धि हो तथा शत्रु के भंग होने से अपनी सिद्धि की सूचना करे-५७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004078
Book TitleSwaroday Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1973
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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