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समाधान-३५ : ‘पंचकल्प' नामक छेदग्रंथ में यही बात इन शब्दों में कही गई है । xx जया पुण पुव्वपवन्नाणिखेत्त - हिरण्णाणि दुपय-चउप्पयाई जइ भंडं वा चेइयाण लिंगत्था वा चेइयदव्वं राउलबलेण खायंति, रायभडाइ वा अच्छिंदेज्जा, तथा तवनियम-संपउत्तो वि साहू जइ न मोएइ, वावारं न करेइ तया तस्स सुद्धी न हवइ, आसायणा य भवइ ।
भावार्थ : जिनमंदिर को मिले खेत, स्वर्ण, दास-दासी, पशु, बर्तन (उपकरण) अथवा चैत्य (देव) द्रव्य को राजा की सेना (सैनिक) नष्ट करने का प्रयास करें तब तप-नियम में रत साधु देवद्रव्य को उनसे न बचाए, इसके लिए पुरुषार्थ न करे तो उसकी (महाव्रतों की) शुद्धि नहीं होती; परमात्मा को आशातना भी होती है ।
'संबोध प्रकरण' जैसे ग्रंथरत्न में तो उपेक्षा करनेवाले साधु-'अनंत संसारी' होते हैं, ऐसा कहा गया है । अनेक ग्रंथों में यह गाथा इस प्रकार दर्शायी गई है ।
चेइयदव्वविणासे तद्दव्वविणासणे दुवियभेए ।
साहू उविक्खमाणो अणंतसंसारिओ भणिओ ।। भावार्थ : 'चैत्य द्रव्य के विनाश के समय, दो प्रकार के चैत्य द्रव्य के विनाश में यदि साधु उपेक्षा करता है तो वह 'अनंत संसारी' कहा गया है ।'
शंका-३६ : तीर्थों में जिनबिंब बहुत होते हैं । कई स्थानों पर इस कारण प्रक्षालपूजा नहीं होती । पुजारी आकर भीगे पोंछे से साफ कर जाता है । आशातना टालने के लिए प्रतिमाजी कम नहीं की जा सकती ?
समाधान-३६ : 'स्तवपरिज्ञा' आदि प्राचीन अनेक ग्रंथों में कहा गया है कि जिनप्रतिमा की प्रक्षालपूजा प्रतिदिन होनी ही चाहिए । प्राचीन तीर्थों में अनेक जिनबिंब होने से ऐसा हो सकता है । ऐसा हो तब ट्रस्टी तथा संचालकों को प्रतिदिन प्रक्षालादि पूजा ठीक से हो ऐसा प्रबंध करना ही चाहिए । ऐसी व्यवस्था यदि संभव न हो तो प्रतिमाजी रखने का मोह कम करके जरूरतवाले स्थानों में सम्मान बना रहे इस प्रकार प्राचीन प्रतिमाजी देने चाहिए । जितने भी जिनबिंब रखें उनकी प्रतिदिन प्रक्षालादि पूजा तो होनी ही चाहिए ।
शंका-३७ : श्रावक के लिए प्रभु की आज्ञाएं क्या हैं ? उन्हें कहां से जानें ?
समाधान-३७ : योगशास्त्र, श्राद्धदिन कृत्य, श्राद्धविधि एवं धर्मसंग्रह भाग-१ आदि | धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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