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करनेवाले इस ग्रंथ में कहा गया है कि, 'शत्रुजये देवभाण्डागारे उद्देशतः सहस्र २० उज्जयन्ते सहस्त्र १७ संजाता ।'
भावार्थ : 'शजय में देव के भंडार में विविधलाभों के चढ़ावे से २० हजार द्रम्म तथा गिरनार में १७ हजार द्रम्म की आय हुई थी ।'
वि.सं. १३६६ के उल्लेखानुसार 'बीजडप्रमुखसकलसुश्रावकैः श्री इन्द्रपदादि प्रोत्सर्पणा विहिता ।'
भावार्थ : बीजड़ आदि सभी सुश्रावकों द्वारा श्री इन्द्रपद आदि की प्राप्ति
के लिए प्रोत्सर्पणा की गई। प्रोत्सर्पणा अर्थात् उछामणी । प्र. + उत्सर्पणा = प्रोत्सर्पणा शब्द बनता है । विशिष्ट प्रकृष्ट ढंग से धन का त्याग करके ऊंचा चढ़ने के क्रिया करके लाभ प्राप्त करने की रीत अर्थात् प्रोत्सर्पणा । जो आज बोली-उछामणी आदि के नाम से प्रसिद्ध है । _ वि. सं. १३८० में दिल्ली से आए संघ की शत्रुजय पर माला होने पर उसमें प्रतिष्ठा माला, इन्द्रपद प्राप्त करना, कलश स्थापना करना, ध्वजा चढाने आदि समस्त लाभ सम्बंधी उछामणी होने पर कुल ५० हजार द्रम्म की आय हुई थी । यह भी 'श्री युगादिदेवभाण्डागारे-' श्री आदिनाथदादा के भंडार में अर्थात् देवद्रव्य में जमा हुई थी ।
इसी प्रकार वि.सं. १३८१ में भी भीलड़ी से शत्रुजय आए संघ की माला आदि की उछामणी के १५ हजार द्रम्म हुए थे वे भी 'श्री युगादिदेवभाण्डागारे' अर्थात् दादा के भंडार में जमा हुए थे।
ये और ऐसे अनेक उल्लेखों को देखने के बाद इन्द्रमालादि को पहनने आदि के लाभ प्राप्त करने के लिए होनेवाली उछामणी बोलियों की प्रथा को 'यतियों के समय में शुरू हुई' ऐसा कहना-प्रचारित करना बिल्कुल अर्थहीन और सत्य से परे है । इसी प्रकार श्री जिनेश्वर देव को उद्देशित करके होनेवालो इन मालाओं आदि का द्रव्य देवद्रव्य में ही जमा होना चाहिए यह और ऐसे उल्लेखों से भी सिद्ध होता है ।
शंका-३५ : देवद्रव्य का विनाश होता हो तो साधु को उसे रोकना चाहिए । न रोके तो उसके महाव्रतों की शुद्धि नहीं रहती । ऐसा धर्मसंग्रह में पढ़ने को मिलता है । इस बात को कहनेवाला कोई पाठ किसी आगम में भी है ? |७६ SESSA धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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