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________________ शंका-२७ : चैत्यवंदन होने के बाद स्वस्तिक पर चढ़े अक्षत, द्रव्य, फल व नैवेद्य का उपयोग कौन करे ? समाधान-२७ : प्रभु पूजा में प्राप्त अक्षत, द्रव्य, फल व नैवेद्य यह देवद्रव्य हो है । इसका उपयोग जिनमंदिर के जिर्णोद्धार या नूतन जिनमंदिर के निर्माण में ही शास्त्रीय रीति से करना योग्य है । श्रावकों को समुचित ध्यान रख कर यह पूरा का पूरा द्रव्य योग्य रीति से बेचकर सुयोग्य मूल्य उपजाना चाहिए । चढ़ाया गया यह द्रव्य पुजारी या जिनालय आदि के अन्य किसी भी नौकर को पगार के रूप में या अन्य किसी रूप में नहीं दे सकते । ऐसा करने से देवद्रव्य के विनाश का पाप लगता है । यदि इस तरह नौकरों को यह द्रव्य दिया जाता है और संघ या संघ-सदस्यों का कोई कार्य इन नौकरों द्वारा होता हो - तो ऐसे कार्य करवानेवालों को भी देवद्रव्य के उपभोग का पाप लगता है । देवद्गव्यनाश एवं देवद्रव्य-उपभोग के जो कातिल दुष्परिणाम एवं भवभ्रमण आदि दोष शास्त्र में बताए हैं, उन्हें पढ़ने के बाद निर्माल्य देवद्रव्य के हिसाब-किताबव्यवस्थापन में उपेक्षा करना किसी भी श्रमणोपासक को रास आए-ऐसा नहीं है । शंका-२८ : जिनमंदिर में चढ़ाया गया फल-नैवेद्य (नारीयल, सुपारी, बादाम, शक्कर आदि भी) यदि दुकानवाले को बेच दें तो उसे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा होता है और जिनमंदिर को ज्यादा से ज्यादा घाटा ! इससे बेहतर कोई अन्य शास्त्रीय अभिगम अपना सकें? समाधान-२८ : दुकानवाले को बेचें तो वह भी उचित मूल्य से ही बेचना चाहिए । यदि ऐसा न हो तो देवद्रव्य को घाटा पहुँचता है । यदि इस तरह से भी घाटा रोक न सको तो अन्य एक मार्ग भी योग्य लगता है । जिनालय की भक्ति हेतु ज्यों अष्टप्रकारी पूजा के द्रव्य को समर्पित करने की वार्षिक बोलियाँ बुलवाई जाती हैं वैसे निर्माल्य द्रव्य की भी बोलियाँ बुलवाई जा सकती है । इसमें - हर महिने के फल-नैवेद्य के देवद्रव्य के घाटे को बचाने हेतु बारह महिनों के फल-नैवेद्य के बारह नाम अंकित किएं जाएं या उसकी बोलियाँ बुलवाई जाए वह द्रव्य देवद्रव्य में जमा करके उसमें से खरीदा हुआ फल-नैवेद्य गाँव-शहर के भिक्षुकोंअपंगों आदि अनुकंपा योग्य अजैन लोगों को दे दिया जाए, तो इससे शासन की प्रभावना के साथ-साथ देवद्रव्य का विनाश रोकने का भी बड़ा लाभ प्राप्त हो सकता है। एक स्थान पर रूढ़ हो जाने से अनुकरणप्रिय अन्य संघों में भी इसका व्यापक प्रचार धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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