SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधान-२३ : संघ के ट्रस्टियों एवं अग्रणियों से मिलकर प्रेमभाव से उन्हें समझाना चाहिए । संघ को विश्वास में लेने के लाभ समझाए जा सकते हैं । फिर भी शास्त्रविरुद्ध संचालन, व्यवस्था जारी रखे और कायदाकीय क्षतियाँ हो तो विवेकपूर्वक उचित कार्यवाही की जा सकती है । __ शंका-२४ : संघ की आमदानी की एफ.डी. (बैंक में मुदती जमाराशि) हो, मंदिर में जरूरत होने पर भी इस्तेमाल न हो, बाहरगाँव भी भेजी न जाती हो, कईबार विवेकपूर्ण कहने पर भी कोई ध्यान न दिया जाता हो, तो क्या हम बोली हुई राशि (चढ़ावा आदि) अन्य सुयोग्य स्थान में भेज दें ? उसकी स्वीकृति को (रसीद) ट्रस्ट में जमा करवा दें ? मार्गदर्शन दें । ___समाधान-२४ : जिस स्थान में वहीवट (संचालन-व्यवस्था) शास्त्रानुसारी न हो, ऐसे स्थानों में बोलियाँ बोलना आदि किसी भी प्रकार का लाभ न लेते हुए जहाँ शास्त्रानुसारी व्यवस्था हो, वहीं ऐसा लाभ लेना चाहिए । फिर भी अज्ञानवश (पूर्व जानकारी के अभाव में) लाभ ले लिया हो, तो अग्रणियों को प्रेमपूर्वक समझाएँ । किसी भी तरह न समझे तो गीतार्थ गुरु भगवंत का मार्गदर्शन लेकर उचित रीति से, सुयोग्य स्थान में अन्य कुछेक व्यक्तियों की साक्षी से वह राशि इस्तेमाल कर उसको स्वीकृति (रसीद) उस संघ में जमा कर सकते हैं । परंतु दूसरी बार तो स्पष्टता करके ही लाभ लेने का भाव रक्खें। __शंका-२५ : अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठा के कार्य में आजकल काफी धन का व्यय हो रहा है । बोलियाँ अच्छी लगी होने से ट्रस्टीवर्ग व्यय भी ‘अच्छा करना चाहिए' - ऐसा सोचकर एक रुपये के स्थान पर पाँच रुपये लगा देते हैं । क्या यह योग्य है ? अयोग्य दिखावा काफी बढ़ गया है - ऐसा नहीं लगता ? ऐसे महोत्सवों में अन्य जातियाँ अपने पैसों पर मजा उड़ा रही हैं । समाधान-२५ : आजकल रुपया अपना मूल्य गँवा बैठा होने से काफी धन व्यय हो रहा है' - ऐसा लगता है । पूर्वकाल में जो उदारता दिखती थी, उसके तो आज दर्शन भी कहीं कभीकभार ही होते हैं । बाकी एक बात सच है कि - कई संघ-अग्रणी १ - धर्मशास्त्रों का ज्ञान न होने के कारण, २ - धर्मगुरुओं से मार्ग-दर्शन न पाने के कारण, ३ - दुनियाई व्यवहारों का भी पूरा अनुभव न होने के कारण एवं ४ - कई बार देखादेखी के कारण भी संघ के पैसों को अनावश्यक उड़ा देते हैं । लाखों रुपयों का व्यय करने पर भी जो शासनप्रभावना होनी चाहिए, वह होती भी नहीं । इसके विपरीत कुछ प्रौढ श्रावक ऐसे भी देखे हैं कि - जो रुपये का काम बारह आनों में, फिर भी |७० धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy