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________________ भोग दे कर देवद्रव्य का सुयोग्य इस्तेमाल हो और दुरुपयोग-नाश तो बिल्कुल न हो इस हेतु पूरा ध्यान रखना चाहिए । निर्माण कार्य-शिल्प-घनफीट आदि गणित एवं तत्संबंधी व्यवहारों का अनुभव न होने से कई संघों एवं व्यक्तियों के हाथों लाखों-करोड़ों का देवद्रव्य व्यर्थ नष्ट हो जाता है । शिल्पी, सोमपुरा एवं पाषाण उद्योग के मांधाता इस क्षेत्र के अज्ञानी लोगों के अज्ञान का पूरा लाभ उठा लेते हैं, इसलिए इस कार्य में काफी ध्यान रख व्यवहार करना हितावह है। शंका-२१ : गुरुपूजन की आय (आमदनी) पर किसका अधिकार ? समाधान-२१ : गुरु भगवंत कंचन (सोना-रूपा आदि धन) के त्यागी होने से पूजन की आय या अन्य किसी भी द्रव्य की आय के वे अधिकारी होते ही नहीं हैं । गुरुपूजन का द्रव्य शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार देवद्रव्य-जीर्णोद्धार आदि खाते में जाता है, अतः उसी खाते का ही उस पर अधिकार है । इस खाते की व्यवस्था-संचालन संघ करता है, अतः संघ के कब्जे में ही यह द्रव्य रखा जाए । साधु भगवंतों के किसी भी कार्य में इस द्रव्य का उपयोग नहीं हो सकता । ___ शंका-२२ : पर्युषण में हमारे संघ में सर्व साधारण का चंदा किया जाता है । उसमें से मंदिरजी के केसर-चंदन आदि का व पुजारी की तनखा-वेतन आदि का खर्चा किया जाता है । घट जाने पर देवद्रव्य में से लिया जाता है । तो क्या यह योग्य है ? समाधान-२२ : देवद्रव्य में से केसर-चंदन या पुजारी की तनखा आदि का खर्चा नहीं करना चाहिए । क्योंकि ये सभी कर्तव्य श्रावक को स्वयं ही करने के हैं । स्वयं के कर्तव्य करने हेतु देवद्रव्य की ओर नजर करना महापाप का कार्य है । अतः थोड़ी ज्यादा उदारता बरतकर ये सभी लाभ श्रावकों को स्वयं ही ले लेने चाहिए । इसके अलावा आज तक अज्ञानवश जितना भी पाप हुआ हो, उसका गीतार्थ गुरु भगवंत के पास प्रायश्चित्त कर संघ एवं संघ के सभ्यों को शुद्धि कर लेना ही आत्महितकर है । शंका-२३ : हमारे यहाँ संघ के सालाना हिसाब-किताब पेश नहीं किए जाते । सरकारी नियमों के अनुसार बहियों का ऑडिट करवाकर कागजात फाइल किए जाते हैं । सभ्यों की या संघ की सभा नहीं बुलाई जाती । आम आदमी को तो मंदिरजी में केसर घिसा तैयार मिल जाता है; अतः कोई बोलता नहीं । तो हमें क्या करना चाहिए ? | धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004076
Book TitleDharmdravya ka Sanchalan Kaise kare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdhwaj Parivar
PublisherDharmdhwaj Parivar
Publication Year2012
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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