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संयोगवश, दुर्भाग्यवश हम में से कोई भी समर्थ व्यक्ति हाजिर न हो, तब भी जगत के कल्याण में महान आलंबनरूप इन जिनबिंब एवं जिनमंदिरों का प्रभाव यथावत दीप्तिमान बना रहे, इस हेतु इस निधि का उपयोग हो ।
आजकल देश-काल की परिस्थिति, सरकार की अनिश्चित धारा-धोरणनीति आदि अनेक कारणों से निधि संवर्धन / संरक्षण की मूलभूत शास्त्रीय विधि का पालन करना और भी संदेहास्पद हो गया है । पूरा निधि ही सरकार के कब्जे हो जाए, ऐसी परिस्थिति का तेजी से निर्माण हो रहा है । ऐसे वातावरण में देवद्रव्य को सुरक्षित नहीं रखकर, उसका शास्त्र-मर्यादानुसार सुयोग्य क्षेत्र में इस्तेमाल हो जाए, यह जरुरी बन चुका है । अतः सबसे पहले जिन-जिन तीर्थों में जिनमंदिर जीर्ण बन चुके हैं, वहाँ स्वयं खोजकर सुयोग्य संचालन व्यवस्था निर्मित कर, देवद्रव्य लगा देना जरुरी है । वर्तमान काल में देवद्रव्य के इस्तेमाल का यह उत्तमोत्तम मार्ग है ।
इसके अलावा कहीं कभी किसी क्षेत्र विशेष में नूतन जिनालय की जरुरत खडी हो जाए, स्थानिय संघ सशक्त न हो एवं अन्य स्रोतों से भी पूरी राशि प्राप्त हो सके, ऐसी परिस्थिति न हो, तब देवद्रव्य में से भी उस नूतन जिनालय का निर्माण लाभ जरुर लिया जा सकता है । इस हेतु वर्तमान परिस्थिति का ख्याल कर गीतार्थ आचार्य भगवंतों ने सम्मति प्रदान की हुई है। फिर भी इस तरह से देवद्रव्य की राशि लगाते समय एक बात खास ध्यान में रखनी चाहिए कि उसी जिनालय के निर्माण में जितनी भी देवद्रव्य की राशि लगी हो, उस हेतु वहाँ पर ... “ यह जिनालय ... संघ के देवद्रव्य की आय (आवक-ऊपज) में से निर्मित किया गया है ।' इस आशय का स्पष्ट लेख लिखना जरुरी है । क्योंकि केवल संघ का नाम उस पर नहीं लिख सकते । केवल स्वयं के नाम की खातिर ही नूतन जिनालय में संघ के देवद्रव्य की आय में से राशि लगाने की इच्छा अधमकोटि की इच्छा है । ऐसों को देवद्रव्य का भोग लगाकर स्वयं का नाम कमाने का भयंकर पाप लगता ही है । अतः ऐसी रीति आजमाना किसी के लिए हितावह नहीं है । देवद्रव्य के इस्तेमाल में किसी भी स्वार्थकेन्द्रित पौद्गलिक लाभ को पाने की लालसा रखे बिना केवल देवद्रव्य की सुरक्षा एवं सदुपयोग का विचार ही सर्वोपरि होना चाहिए । अतःएव धर्मप्रेमी सुश्रावकों को चाहिए कि - जिनालय के जिर्णोद्धार - नूतननिर्माणादि कार्यों में आदि से अंत तक स्वयं निगरानी कर अपने कीमती समय का
धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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