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समाधान
१८ : जीवदया की राशि का सदुपयोग यदि नहीं होता हो, तो प्रेरणा कर, उपदेश देकर, प्रयत्न कर, समयादि का समर्पण कर उसका सदुपयोग हो, वैसा
करना चाहिए ।
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अनुकंपा में काफी राशि की आवश्यकता हो तो भी उसे इकट्ठी करने के लिए जीवदया के चंदे को बंद करवाना उचित नहीं है ।
जिनमंदिर में महापूजन - प्रतिष्ठा आदि अवसर पर महापुरुषों ने जीवदया का चंदा करने की छूट दी है, अनुकंपा का चंदा करने की नहीं । यह बात इस संदर्भ में ध्यान रखनी चाहिए ।
शंका- १९ : प्रतिष्ठा आदि के अवसर पर फले- चूंदड़ी या झाँपा चूंदड़ी की बोली होती है, उस खाते में वृद्धि हो तो उस राशि में से अकाल राहत या भूकंप राहत के तौर पर मनुष्यों से काम करवाकर उसके भुगतान रूप खर्च कर सकते हैं क्या ?
समाधान-१९ : यह राशि सातक्षेत्रों के अलावा अनुकंपा जीवदया - मानवहत अकालराहत-भूकंपराहत आदि किसी भी मानवीय या पशु संबंधित कार्य में इस्तेमाल की जा सकती है । पर इसका मतलब यह नहीं है कि मनुष्यों आदि से काम करवाकर उसके भुगतान रूप में इसे खर्च किया जाए । बिना कोई काम करवाए, केवल उनके ऊपर आ पड़ी विपदा को सर्वतः या अल्पतः दूर करने की निःस्वार्थ भावना से ही यह कार्य होना चाहिए ।
शंका- २० : देवद्रव्य की राशि जिनमंदिर के जिर्णोद्धार में ही लगा सकते हैं या नूतन जिनमंदिर के निर्माण में भी लगा सकते हैं ? आजकल नूतन जिनमंदिर अनेक स्थानों पर धड़ल्ले से बन रहे हैं । क्योंकि उसमें ज्यादा रुचि है । नाम भी होता है । पुराने मंदिरतीर्थ ज्यादा जीर्ण बनते जा रहे हैं । इस बारे में सुयोग्य मार्गदर्शन स्वागतयोग्य होगा ।
समाधान-२० : जैनशासन की मूलभूत विधि अनुसार देवद्रव्य का तो निधिभंडार ही करना होता था । श्रावक के 'देवद्रव्यवृद्धि' कर्तव्य के अमलीकरण से उसमें प्रतिदिन कुछ-न-कुछ पधराकर देवद्रव्य को प्रवर्द्धमान ही करना होता था । इसके अलावा उस निधि के प्रतिदिन दर्शन करने की विधि भी मिलती है । उस समय सुश्रावक भावना भाते हैं कि 'आज तो हम अपने स्वद्रव्य का उपयोग कर परमात्मा के जिनबिंब-मंदिर निर्माण- जीर्णोद्धार आदि का पूरा लाभ ले सकते हैं, लेकिन कभी
| धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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