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५३ धर्मस्थानों को उज्ज्वल, स्वच्छ रखें । समय-समय पर चूना- रंगरोगान आदि करवाया जाए । निगोद-काई आदि त्रसजीव न हों इसके लिए सावधानी रखी जाए । सभी कार्यों में जयणा का पालन सर्वोपरि महत्त्व की बात है ।
५४ - प्रतिमाजी तथा परिकर को स्वच्छ, निर्मल रखें ।
पूजा आदि के लिए केसर, चंदन, घी, धूप, वरक आदि जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती है, उनका सुयोग्य संचय करें ।
धर्मस्थानों में काम चल रहा हो उस समय उन कारीगरों से अपने घर के या अपने धंधे के कार्य न कराएं । धर्मकार्य रुक जाए इस प्रकार स्वयं के कार्य न कराएं ।
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५७ - संघ-स्वामिवात्सल्य आदि के लिए सब्जियाँ या अनाज खरीदने के लिए गए
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हों तब अपने घर-दुकान के लिए खरीदी न करें । संघ के लिए होलसेल दामों पर खरीदी हो रही हो तब बेचनेवाला उन्हीं दामों में खरीदनेवाले को भी दे दे यह संभव है । ऐसा हो तो दोष लगता है ।
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५८ जो-जो धर्मस्थान जिस किसी उद्देश्य से निर्मित हुए हैं, उनमें उसी उद्देश्य का
पालन हो, उसके प्रति ट्रस्टी लक्ष्य रखें । जैसे कि आयंबिल भवन आदि धर्मस्थान में शादी-ब्याह आदि सांसारिक कार्य न होने दें ।
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६० ट्रस्ट के लाभार्थी - तपस्वी आदि के लिए जो विशेष व्यवस्था-सुविधाएँ हों उनका उपयोग ट्रस्टी स्वयं न करें । लाभार्थी- तपस्वी आदि को दी गई सुविधाओं में कोई कमी तो नहीं है, यह परखने के लिए स्वयं उतनी सुविधा का उपयोग करें वह ठीक है, परंतु अकारण उपभोग नहीं करें । उदा. अत्तरवायणा, पारणा, एकासना, आयंबिल की रसोई आदि चखना इत्यादि ।
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संघ ने जिस विश्वास के साथ धर्मस्थान- धर्मद्रव्य के संचालन का कार्य सौंपा है, उसे पूर्ण निष्ठा, लगन एवं पुरुषार्थ के साथ ट्रस्टी सार्थक करें ।
६१ जिनमंदिर में देवद्रव्य तथा जीर्णोद्धार के भंडार ही रखे जाएं । अन्य क्षेत्रों के
भंडार जिनमंदिर के बाहर सुयोग्य - सुरक्षित स्थानों पर ही रखे जाएं । *
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धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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