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३४ - जीवदया का द्रव्य संग्रह करके न रखें । तुरंत जीवों को छुड़वाने के लिए,
पांजरापोलों में पशुओं के घासचारे आदि के लिए भेज दिया जाना चाहिए, अन्यथा
अंतराय का पाप बंधता है । ३५ - अनुकंपा के लिए भी शास्त्रीय मार्गों का ज्ञान प्राप्त करना बहुत आवश्यक है ।
इस द्रव्य के द्वारा हिंसा को उत्तेजना देनेवाले अस्पताल आदि को प्रोत्साहन न
मिले, इसकी ओर ध्यान रखा जाए । ३६ - हमारे संघ में आयोजित प्रत्येक महत्त्वपूर्ण प्रसंग पर जीवदया तथा अनुकंपा के
लिए कोई न कोई ठोस कार्य हो इसकी ओर लक्ष्य रखना चाहिए । ये दोनों कार्य
धर्मप्रभावना के अंग हैं। ३७ - पाँच प्रतिक्रमण, जीवविचार तथा नौ-तत्त्वों का अर्थसहित अभ्यास कर लेना यह
ट्रस्टी के लिए धर्मक्षेत्र को समझने, स्व-पर हित के लिए उपयोग करने के लिए
अत्यंत आवश्यक बात है । साथ-साथ श्राद्धविधि भी अवश्य पढ़ लें । ३८ - साधु संस्था में प्रविष्ट शिथिलाचार को ट्रस्टी प्रोत्साहन न दें । उचित उपाय करके
विवेकपूर्वक शिथिलाचार को रोकने का प्रयास करें । साधु-साध्वीजी की निंदा
स्वयं न करें और कोई करे तो न सुनें । ३९ - ट्रस्टी अर्थात् संघ का सेवक । मेरा अहोभाग्य है कि मुझे संघ की सेवा का
सौभाग्य प्राप्त हुआ, ऐसा प्रत्येक ट्रस्टी मानें । ४० - जिनाज्ञानुसार संचालन करने से यावत् तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है तथा
जिनाज्ञा से विपरीत संचालन करने से अनंत संसार परिभ्रमण होता है, इसलिए
ध्यानपूर्वक, जिनाज्ञा को समझकर उसका अनुसरण करें । ४१ - साधु-साध्वी को देखते ही ट्रस्टी का मस्तक झुक जाए । उनकी वैयावच्च में
वह रुचि लें । उनकी संयमयात्रा और शरीरस्वास्थ्य सुखरूप रहे, इसके प्रति वह
ध्यान दें। ४२ - सारे हिसाब-किताब आईने की तरह स्वच्छ रखें । कोई भी आकर देखना-पूछना
चाहे तो संपूर्ण धैर्य के साथ ट्रस्टी उन्हें बताए और उनके मन की जिज्ञासा को
तृप्त करें । किसी के साथ अविनय से क्षुद्र व्यवहार करे ही नहीं । ४३ - छोटे बालक से भी अगर हितकर जानकारी मिले तो प्रेम सहित उसको
स्वीकार करें । | धर्मद्रव्य का संचालन कैसे करें ?
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